-तेजी से बढ़ रही चिंता की बीमारी, इसका कारण है साधारण, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण
-विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर ‘सेहत टाइम्स’ की डॉ गौरांग गुप्ता से विशेष वार्ता
सेहत टाइम्स
लखनऊ। आज (10 अक्टूबर) विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस है। पिछले दस साल में एंग्जाइटी यानी चिंता और डिप्रेशन यानी अवसाद के केस ज्यादा बढ़े हैं। इन दोनों बीमारियों में अंतर यह है कि डिप्रेशन होने के पीछे दुख, घटना, पारिवारिक परेशानी जैसा कोई न कोई कारण होता है। जबकि एंग्जाइटी होने के पीछे कोई कारण नहीं होता है, मुख्य रूप से मरीज बस यह बताता है कि मुझे घबराहट होती है, ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों आ रही है।
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस (10 अक्टूबर) के मौके पर ‘सेहत टाइम्स’ से मनोचिकित्सा विषय से होम्यौपैथी में एमडी करने वाले गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च जीसीसीएचआर के कन्सल्टेंट डॉ गौरांग गुप्ता ने विशेष बातचीत में यह जानकारी देते हुए बताया कि देखा गया है कि एंग्जाइटी होने का सबसे बड़ा कारण व्यक्ति का अपनी हेल्थ को लेकर ज्यादा ही चिंता करना है। वे सोचते हैं कि मुझे कहीं कोई बड़ी बीमारी न हो जाये जिससे मेरी मृत्यु हो जाये, जिसे फीयर एबाउट डिजीज कहा जाता है। इसी में एक दूसरी कैटेगरी होती है जिसमें सामान्य परिस्थितियों में भी व्यक्ति अपनी हेल्थ के प्रति जरूरत से ज्यादा सोचता है, जिस व्यक्ति का स्वभाव बहुत चिंता करने वाला है, ऐसे व्यक्ति को अगर बहुत सारा सोचने वाला मैटीरियल दे दिया जाये, जो कि उसे इंटरनेट से मिल जाता है, तो उस व्यक्ति को चिंता की बीमारी (एंग्जाइटी) हो जाती है। चिंताग्रस्त व्यक्ति ज्यादा सोचता है, और सामान्यत: यह सोचने का समय उसे रात में, जब वह अकेले बिस्तर पर लेटता है, तब मिलता है, क्योंकि वो समय ऐसा होता है जब एकान्त होता है, उस समय वह किसी से बात भी नहीं कर पाता है, सोच-सोच कर परेशान होता है, यही वजह है कि चिंता की बीमारी के साथ उसे इंसोमनिया यानी नींद न आने की बीमारी भी हो जाती है।
डॉ गौरांग बताते हैं कि ऐसे ज्यादातर मरीज वे हैं जिन्हें नींद न आने की बीमारी के पीछे चिंता होना एक बड़ा कारण है, हर बात की चिंता करने की वजह से उनकी नींद डिस्टर्ब होती है। यही नहीं जब नींद नहीं आती है, तो व्यक्ति फिर मोबाइल चलाने लगता है, और मोबाइल में फिर उसे कोई चिंता का विषय मिल जाता है, जिसे लेकर अगले दिन चिंता में डूबा रहता है।
होम्योपैथिक में मौजूद हैं इन बीमारियों के उपचार की दवाएं
उन्होंने बताया कि उनके पास अधिकतर मरीज तब आते है जब वे एंग्जाइटी के चलते इरेटिव बॉयलिंग सिंड्रोम (आईबीएस) के शिकार हो जाते हैं, आईबीएस के लक्षणों में डायरिया, कब्ज, लगातार वजन घटना, समुचित पोषण न हो पाना होता है, जिससे लोग बहुत ज्यादा परेशान हो जाते हैं, अनेक जांच कराते हैं, लेकिन उन जांचों में भी कुछ नहीं निकलता क्योकि आईबीएस होने का कारण तनाव होता है। डॉ गौरांग बताते हैं कि जब स्ट्रेस इन्ड्यूज स्किन डिजीजेस, स्ट्रेस इन्ड्यूज गैस्ट्रो डिजीजेज, स्ट्रेस इन्ड्यूज अर्थराइटिस, स्ट्रेस इन्ड्यूज एलर्जी जैसी बीमारियों के लक्षणों के साथ उनके पास मरीज आते हैं तो उन्हें इन शारीरिक बीमारियों की दवा के साथ ही एंग्जाइटी दूर करने की भी दवा दी जाती है, होम्योपैथिक में ऐसी दवाएं मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि नींद न आने की बीमारी का इलाज भी होम्योपैथिक में मौजूद है, जो कि सुरक्षित और बिना किसी साइड इफेक्ट के बीमारी ठीक करता है, जबकि ऐलोपैथिक में जब लोगों को पहले नींद लाने के लिए दवाएं दी जाती हैं, और जब धीरे-धीरे व्यक्ति की निर्भरता उन दवाओं पर बढ़ जाती है, तब उन नींद की दवाओं को छुड़ाने के लिए उपचार की जरूरत महसूस होती है। उन्होंने बताया कि जिन्हें नींद की दवा की आदत पड़ गयी है, उनकी आदत छुड़ाने में होम्योपैथी की भूमिका है, तथा जिन्हें आदत नहीं लगी है, उन्हें उन दवाओं से दूर रखते हुए उनकी नींद की समस्या ठीक करने में भी होम्योपैथी सक्षम है। डॉ गौरांग ने बताया कि कभी-कभी ऐसी भी परिस्थिति बन जाती है, कि व्यक्ति नींद के लिए ऐलोपैथिक दवाएं ले रहा है, और उसकी परेशानी ज्यादा बढ़ी हुई है, तो होम्योपैथिक दवा के साथ ही बीच-बीच में ऐलोपैथिक दवा को लेने की भी अनुमति हम लोग दे देते हैं, लेकिन यह जरूर ध्यान देते हैं कि ऐलोपैथिक दवा की आदत न पड़े, धीरे-धीरे मरीज ठीक हो जाता है।
इंटरनेट आने के बाद से तेजी से बढ़े हैं ऐसे मामले
डॉ गौरांग ने कहा कि अगर इस समस्या के समाधान की बात करें तो मोटे तौर पर यह समझना चाहिये कि चिकित्सा सम्बन्धी इंटरनेट पर मिली जानकारियों के आधार पर अपनी या अपने परिजनों की बीमारियों के बारे में किसी नतीजे पर न पहुंचें। यहां मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरा यह कहने का अर्थ नहीं है कि आप गूगल पर न पढ़ें, सबका हक है, जरूर पढ़ें, जानकारी लें, लेकिन खुद एक्सपर्ट न बनें, चिकित्सक की सलाह जरूर लें, क्योंकि कौन सी चीज कहां लागू होती है, किस व्यक्ति को फायदा करती है, किस को नुकसान, इस बारे में चिकित्सक ही बेहतर बता सकता है। उन्होंने कहा कि मैंने अपनी प्रैक्टिस में देखा है कि लोग गूगल से पढ़कर जब अपनी बीमारी को लेकर आते हैं, तो उनके पास बड़ी संख्या में वे सवाल होते हैं, जिनका उनकी बीमारी से कोई मतलब नहीं है। ऐसे केसेज बढ़ते जा रहे हैं। डॉ गौरांग ने बताया कि इस प्रकार के केसेज बढ़ने के पीछे मेरा यह मानना है कि इंटरनेट पर सभी तरह की जानकारियां मौजूद रहती हैं, लेकिन चिकित्सा विज्ञान इतना गूढ़ विषय है कि इसकी गहरायी को आसानी से समझना संभव नहीं है, यही वजह है कि डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए कठिन एंट्रेस परीक्षा से गुजरना होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मेडिकल की भरपूर जानकारियां तो इंटरनेट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध हैं लेकिन पढ़ने वाले व्यक्ति के नॉन मेडिको होने के कारण उन जानकारियों को समझना बहुत आसान नहीं होता है, क्योंकि जिस क्षेत्र में जो व्यक्ति कार्य करता है, उसे अपने क्षेत्र की जानकारी तो अच्छी हो सकती है लेकिन सभी क्षेत्रों की जानकारी हो, ऐसा आवश्यक नहीं है।