-मन को प्रभावित करने वाले अनेकानेक कारणों की दवाएं मौजूद हैं होम्योपैथी में
-आत्महत्या करने की बढ़ती घटनाओं के ज्वलन्त मुद्दे पर ‘सेहत टाइम्स’ की विशेष रिपोर्ट
सेहत टाइम्स
लखनऊ। गोमती नगर में डेंटल क्लीनिक चलाने वाले इंदिरा नगर निवासी डॉक्टर ने दो दिन पूर्व 17 जनवरी को अपने घर में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली, सुसाइड नोट में उसने लिखा कि ‘आई एम डिस्अपॉइन्टेड यानी मैं निराश हूं…’ इससे पहले 14 जनवरी को किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी केजीएमयू की पीजी छात्रा (रेजीडेंट डॉक्टर) ने दूसरी मंजिल के कूद कर जान देेने की कोशिश की, इससे पहले स्कूली बच्चों द्वारा आत्महत्या कर ली गयी। यह सिलसिला चलता रहता है, सोच कर देखिये जो डॉक्टर मरीज को जीने की राह दिखाता है, खुद अगर आत्महत्या की ओर कदम बढ़ाये तो यह गंभीर बात है, हमें यह विचार करना होगा कि आखिर ऐसी नौबत क्यों आयी, जान देने के कारणों को हम कैसे दूर कर सकते हैं, और सबसे बड़ा प्रश्न कि आत्महत्या करने से लोगों को कैसे रोका जा सकता है।
इस ज्वलन्त समस्या के समाधान के बारे में ‘सेहत टाइम्स’ ने फेदर्स-सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ की फाउंडर, रजिस्टर्ड क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता, होम्योपैथी में मनोचिकित्सा विषय से एमडी डिग्रीधारक (एमडी साइक्रियाटिस्ट) गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च के कन्सल्टेंट डॉ गौरांग गुप्ता व चीफ कन्सल्टेंट ख्यातिलब्ध शोधकर्ता वरिष्ठ होम्योपैथिक चिकित्सक डॉ गिरीश गुप्ता से विस्तार से वार्ता की। तीनों लोगों से वार्ता में जो निष्कर्ष आया वह यह था कि पीडि़त व्यक्ति को जहां क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की काउंसिलिंग से उसकी निराशावादी सोच, स्वयं को कमतर आंकने की सोच को बदला जाना संभव है, वहीं होम्योपैथी में ऐसी दवाएं मौजूद हैं जिनसे व्यक्ति को उसके अंदर आने वाले आत्महत्या के उस क्षणिक आवेग तक पहुंचने से रोका जा सकता है। यही नहीं इसका एक ताजा उदाहरण भी मिला जिसमें एक 16 वर्षीय किशोरी जो लम्बे समय से अवसाद का शिकार होकर कई बार अपने हाथों की नसों को काटकर जान देने की कोशिश कर चुकी थी, उसकी जब क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट से काउंसिलिंग के साथ होम्योपैथिक दवा दी गयी तो डेढ़ माह के इलाज के बाद उसका नजरिया बदलता प्रारम्भ हो गया है।
बर्न आउट स्टेज से सुसाइडल स्टेज तक तेजी से पहुंचता है व्यक्ति
इस ज्वलन्त विषय पर सावनी गुप्ता का कहना है कि इस समस्या को बर्न आउट कहा जाता है, आम भाषा में जिसे मेंटल इमोशनल ब्रेकडाउन भी कहते हैं, इसमें बहुत पहले बॉडी में साइन आने शुरू होते हैं जैसे काम से फोकस हटेगा, खानापीना डिस्टर्ब होगा, नींद कम होगी, दबाव महसूस होगा, कोई परीक्षा देनी है तो उससे पहले चिंता होना आदि होने लगता है। इसके कारणों की बात करें तो किसी भी विषय में जब आप यह महसूस करते है कि मैं अपनी क्षमता से ज्यादा दे रहा हूं लेकिन इसके अनुरूप हमें रिस्पॉन्स नहीं मिल रहा है तो एक स्थिति के बाद इसका असर पहले फिजिकली फिर साइकोलॉजिकली दोनों तरह से पड़ता है। उन्होंने बताया कि पहले तो व्यक्ति इसे बर्दाश्त करता रहता है, इसके बाद भी अगर स्थितियां नहीं ठीक हुईं तो एक्जॉरशन स्टेज पर आता है, फिर धीरे-धीरे एक स्थिति ऐसी आती है कि सब कुछ ठप हो जाता है, यही बर्न आउट स्टेज है, इसके बाद एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति को कुछ भी समझ में नहीं आता है, उसके अंदर सुसाइड की भावना बलवती होती है और वह सुसाइड कर लेता है। उन्होंने कहा कि कुछेक केसेज में बर्न आउट स्टेज के बाद भी व्यक्ति स्थितियों को खींचता रहता है, वह अपने परिवार से, मित्र से बात करता है कि शायद स्थितियां सुधर जायें लेकिन जब वह भी स्टेज पार हो जाती है तो उस व्यक्ति को कुछ समझ में नहीं आता है, और वह अवसाद जैसे डिसऑर्डर का शिकार हो जाता है, और फिर सुसाइड जैसा कदम उठा लेता है। सावनी बताती हैं कि बर्न आउट स्टेज तक आने में तो कुछ समय लगता है लेकिन बर्न आउट स्टेज से सुसाइड करने की स्टेज तक पहुंचने में ज्यादा समय नहीं लगता है।
यह पूछने पर कि इसका हल क्या है, इस पर सावनी का कहना है कि इसका एक ही तरीका है कि इस स्टेज तक व्यक्ति को पहुंचने ही न दें, लोगों में यह जागरूकता लायें कि अगर कोई बर्नआउट स्टेज से पहले की स्टेज दिखे तभी या तो व्यक्ति स्वयं चिकित्सक से सम्पर्क करे अपनी दिक्कत बताये, या फिर दूसरे लोग जिन्हें व्यक्ति की दिक्कतों की जानकारी है, वे उस व्यक्ति की मदद करें, उसे समझाएं, जिन दिक्कतों की वजह से व्यक्ति दबाव महसूस कर रहा है, उन दिक्कतों से उसे दूर रखने की कोशिश करें, उदाहरण के लिए यदि काम के दबाव की वजह से व्यक्ति लम्बे समय से लगातार परेशान चल रहा है, तो बेहतर होगा कि उसे एक सप्ताह, दस दिन के लिए कार्य से अवकाश दे दें।
सावनी ने यह भी बताया कि यहां यह समझना जरूरी है कि काम का थोड़ा प्रेशर तो फील होगा ही लेकिन जब ज्यादा प्रेशर पडने लगे और व्यक्ति जब यह महसूस करे कि उसके कार्य का असर उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी, खाना-पीना, नींद, एकाग्रता, उसके मूड पर पड़ रहा है, तनाव के चलते पेट साफ नहीं हो रहा है, तो इसी स्टेज पर एक्शन लेना चाहिये। उन्हें अपने डॉक्टर, क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट से मिलना चाहिये। उन्होंने बताया कि क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट व्यक्ति की काउंसिलिंग करके उसकी मदद कर सकता है। यह काउंसिलिंग व्यक्ति की स्टेज, उसकी परेशानी के कारणों को देखते हुए की जाती है। सावनी ने बताया कि काउंसिलिंग के बाद व्यक्ति के अंदर जिस प्रकार से आत्मविश्वास पैदा होता है, वह उसकी सोचने की दिशा को बदल देता है, जिससे उसे दबाव से निपटने में मदद मिलती है।
नकारात्मक सोच समाप्त कर देती हैं दवायें
इस विषय में डॉ गौरांग का कहना है कि व्यक्ति जब विभिन्न प्रकार के कारणों के चलते मानसिक रूप से परेशान रहता है तो पहले तो उसे बर्दाश्त करता रहता है, फिर उसके मन में अनेक विचार आते रहते हैं, उसी प्रकार आत्महत्या करने के विचार भी आते हैं, ये विचार आते और जाते रहते हैं, लेकिन लम्बे समय के बाद एक स्टेज ऐसी आती है जिसे इम्पल्स या आवेग कहते हैं, जिसमें व्यक्ति अचानक आत्महत्या करने की ओर बढ़ जाता है, यह सब क्षणों में ही होता है।
डॉ गौरांग ने बताया कि होम्योपैथिक में ऐसी दवाएं हैं जो इस आवेग को रोकती हैं। आत्महत्या करने के बारे में सोच रहा है तो उसके ये विचार आने कम होने शुरू हो जाते हैं, होम्योपैथिक दवाएं व्यक्ति के सोचने की क्षमता कम करने के बजाय उसे दुरुस्त करती हैं, अगर व्यक्ति नकारात्मक तरीके से सोच रहा है, तो वह सकारात्मक तरीके से सोचने लगता है, उसके अंदर जीने की इच्छा बढ़ती है, दुखों का जख्म भरने लगता है और धीरे-धीरे उस व्यक्ति के सोचने का अंदाज बदल जाता है और आत्महत्या का विचार समाप्त हो जाता है।
इस विषय में डॉ गिरीश गुप्ता का कहना है कि आत्महत्या जैसा कदम उठाने के पीछे के कारणों में देखा गया है कि फाइनेंशियल लॉस, महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाना, अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर पाने का तनाव, पढ़ाई का प्रेशर, काम का काम का दबाव, प्यार में धोखा, प्रियजन के विछोह जैसे अनेक कारण हैं जिनकी वजह से लोग अवसाद का शिकार हो जाते हैं। इस दौरान उनके मन में निराशा के भावों के बीच आत्महत्या करने के विचार भी आने शुरू हो जाते हैं, पीडि़त व्यक्ति के मन में ये विचार आते-जाते रहते हैं, ऐसे में लम्बे समय तक किसी प्रकार का उपचार न करने के कारण जब यही स्थिति बनी रहती है तो एक दौर सुसाइडल इम्पल्शन यानी आवेग का आता है, इसी क्षणिक आवेग में आकर व्यक्ति आत्महत्या जैसे अप्रिय कदम उठा लेता है। उन्होंने कहा कि मुझे बताते हुए होम्योपैथिक पर गर्व है कि इसमें मौजूद दवाएं व्यक्ति की सोच को सकारात्मक दिशा में ले जाने की क्षमता रखती हैं। उन्होंने बताया कि अगर मैं आपको ताजा उदाहरण बताऊं तो 16 वर्षीया मरीज जो कानपुर से हमारे पास आती है, मरीज की पहचान सार्वजनिक नहीं की जा सकती है, लेकिन इतना मैं बता सकता हूं कि जब उसके माता-पिता पहली बार उनके पास आये और उन्होंने बताया कि लम्बे समय से वे अपनी पुत्री को लेकर परेशान हैं, क्योंकि कई बार वह अपने हाथ की नसों को नुकसान पहुंचा कर जान देने की कोशिश कर चुकी है। डॉ गिरीश ने बताया कि इस लड़की की काउंसिलिंग के साथ ही इसकी पूरी हिस्ट्री लेकर कारणों को ध्यान में रखते हुए दवा का चुनाव कर उसे दवा देनी शुरू की गयी थी, जो अभी भी दी जा रही है। उन्होंने बताया लगभग डेढ़ माह से दवा चल रही है, और अब उनके माता-पिता का कहना है कि दवा का अच्छा असर दिख रहा है, क्योंकि पहले यह खुद को नुकसान पहुंचा लेती थी लेकिन अब ऐसा नहीं कर रही है। डॉ गिरीश ने बताया कि उन्होंने इस बारे में मरीज से भी बात की तो उसका कहना था कि पहले मेरेे अंदर खुद को समाप्त करने के विचार आते थे, तो मैं ऐसा कदम उठाती थी। लड़की का कहना है कि मूड मेरा अब भी खराब होता है और अब भी मेरी इच्छा करती है कि मैं अपनी जान दे दूं लेकिन फिर तुरंत ही मेरे मन में विचार आता है कि मैंं ऐसा न करूं।