–राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस (1 जुलाई 2025) पर सेहत टाइम्स से विशेष वार्ता में डॉ सचिन वैश्य ने साझा किये खट्टे-मीठे अनुभव

✍️धर्मेन्द्र सक्सेना
लखनऊ। चिकित्सकों के परिवार में जन्म लेने के चलते बड़े होकर चिकित्सक बनने का ख्वाब तो था लेकिन सच कहूं तो इस ख्वाब को पूरा करने का प्रण मैंने अपने स्कूल के दिनों में हुई एक घटना के बाद ही लिया था, इस घटना ने मुझे मरीज की लाचारी इतने करीब से दिखायी कि मेरा मन द्रवित हो उठा।
यह उस बातचीत के अंश हैं जो प्रांतीय चिकित्सा संघ के अध्यक्ष डॉ सचिन वैश्य ने नेशनल डॉक्टर्स डे (1 जुलाई) के मौके पर सेहत टाइम्स के साथ की। उन्होंने बताया कि आज की तारीख में करीब आठ चिकित्सक और 9 इंजीनियर मिलाकर हमारा पूरा परिवार ही डॉक्टर और इंजीनियर का है। उन्होंने बताया कि मेरे पिताजी डॉ हरिश्चन्द्र वैश्य (रिटायर्ड चिकित्सा महानिदेशक) एक चिकित्सक थे जो कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के पास आउट थे। तो जब से जन्म लिया तब से ही घर के अंदर प्रोविंशियल मेडिकल सर्विसेज का वातावरण पाया मेरी दीदी, मेरे जीजाजी (फर्स्ट कसिन) भी चिकित्सक थे, जो कि केजीएमसी और मेरठ मेडिकल कॉलेज के पास आउट थे मेरे दूसरे कसिन आईआईटी कानपुर से पासआउट इंजीनियर हैं। उन्होंने बताया कि मेरा सगा छोटा भाई और मेरा बेटा दोनों ही इंजीनियर हैं।
डॉ सचिन ने बताया कि अपने पिताजी को देखकर बचपन से ही एक ख्वाब था कि मैं चिकित्सक बनूं लेकिन इससे पहले कि यह निर्णय लेने का समय आता उससे पूर्व का एक वाक्या अपने जीवन से जुड़ा हुआ याद आता है, यह करीब सन 1986 की बात है मैं उस समय लखनऊ में जुबली इंटर कॉलेज में पढ़ा करता था, मैं अपने एक मित्र भारत भूषण जोशी के साथ स्कूल साइकिल से ही आया-जाया करता था। उन्होंने बताया कि मुझे याद है कि मैं साइकिल से वापस आ रहा था और उसी समय पर किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के पास, अब जहां अटल बिहारी वाजपेयी साइंटिफिक कन्वेन्शन सेंटर बन गया है, वहां एक मरीज लेटा हुआ था, उस मरीज को एक सफेद रंग का कपड़ा ओढ़ा रखा गया था तथा बगल में उनकी शायद धर्मपत्नी थी जो विलाप कर रही थीं, मुझसे रहा नहीं, मैं और मेरा मित्र दोनों उतर कर वहां पर पहुंचे तो पता चला कि मरीज को पथरी है, वे लोग बलिया से इलाज कराने आये थे, उनका कहना था कि यहां इलाज बहुत महंगा है, तो मुझे वापस जाना है लेकिन वापस जाने के लिए पैसे नहीं हैं।

डॉ सचिन बताते हैं कि यह सुनकर मैंने अपने मित्र से कहा कि भाई जेब में कुछ पैसे हैं, तो मित्र ने देखा तो उसके पास भी पैसे नहीं थे, मेरी जेब में कुछ मेरी महीने की पॉकेट मनी जो माता-पिता से प्राप्त होती थी, वह पड़ी थी, मुझे याद नहीं है कि कितने रुपये थे, लेकिन इतने थे कि उनके टिकट के लिए पर्याप्त थे, मैंने वह पैसे उनको दिए उन्होंने काफी दुआएं दीं और उन्होंने मेरा एड्रेस ले लिया। उन्होंने यह भी बताया कि वह जो इंसान जो जमीन पर लेटे हुए हैं वह शिक्षक हैं, मुझे अच्छी तरह से याद है, उसके बाद उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया और मैं अपने मित्र के साथ चला गया। घटना के 6 महीने के पश्चात मुझे कुछ मुझे याद है मेरे पास करीब 70 रुपये मनीऑर्डर से आये और साथ में यह भी लिखा था कि ये पैसे जो आपने दिये थे, उसे लौटा रहा हूं और यह भी लिखा था कि वे शिक्षक (जो जमीन पर लेटे थे) अब इस दुनिया में नहीं रहे।
डॉ सचिन बताते हैं कि वो एक ऐसी स्थिति थी जिसने मुझे हमेशा प्रेरणा दी कि मैं चिकित्सक बनूं। इस घटना और अपने पिताजी को देखकर ही मैं प्रांतीय चिकित्सा सेवा में चिकित्सक बना। सीएचसी मोहनलाल गंज, सरोजनी नगर में भी तैनात रहा, उसके बाद जवाहर भवन, महानिदेशालय में तैनाती रही, इस समय आयुष्मान भारत में तैनाती है। मेरा हमेशा से एक ध्येय रहा कि परोक्ष रूप से मरीजों को लाभ कैसे पहुंचाया जा सकता है।
डॉ सचिन का कहना है कि आज की तारीख में मैं चिकित्सकों की दशा देखता हूं, पहले चिकित्सकों का सम्मान बहुत हुआ करता था, आज भी सम्मान है लेकिन मूल्यों में गिरावट आयी है, लेकिन इसमें मैं चिकित्सकों की भी बहुत ज्यादा गलती नहीं मानता क्योंकि चिकित्सकों को जो सुविधाएं प्राप्त होनी चाहिये वह आजकल विशेष तौर पर सरकारी चिकित्सकों को वो पूरी सुविधाएं प्राप्त नहीं हो रही है। वर्क प्रेशर बहुत ज्यादा है सरकारी सेवाओं की तरफ चिकित्सक आकर्षित नहीं हो रहे हैं इस पर ध्यान दिये जाने की जरूरत है कि इसके क्या-क्या कारण हैं, आखिर क्यों चिकित्सक सरकारी सेवा में नहीं आना चाह रहे हैं।
