-दवा के चयन में रोगी की प्रकृति व मन:स्थिति महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित हो चुकी है स्टडी
-किशोर गठिया जागरूकता माह (जुलाई) के मौके पर डॉ गिरीश गुप्ता से वार्ता
सेहत टाइम्स
लखनऊ। रूमेटाइड आर्थराइटिस एक ऑटो इम्यून डिजीज है, इसमें इम्यून सिस्टम, जो कि रोगों से लड़ने के लिए एंटी बॉडीज बनाता है, अपने ही अंगों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता है, इससे शरीर में आरए फैक्टर की मात्रा बढ़ जाती है, आरए फैक्टर की नॉर्मल रेंज 24 IU तक है। इस रेंज से ऊपर होने पर जोड़ों में दर्द और सूजन पैदा हो जाती हैं, जिससे जोड़ों की परतें खराब होने लगती हैं। आगे चलकर अंगुलियों में टेढ़ापन आ जाता है और अंतत: उंगलिया काम करने लायक नहीं रहती हैं। यह बीमारी वयस्कों ही नहीं बच्चों और किशोरों को भी अपनी चपेट में ले लेती है। राहत की बात यह है कि होम्योपैथी में रूमेटाइड अर्थराइटिस का इलाज संभव है, इस सम्बन्ध में वरिष्ठ होम्योपैथिक चिकित्सक, गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च (जीसीसीएचआर) लखनऊ के चीफ कन्सल्टेंट डॉ गिरीश गुप्ता द्वारा इस पर किये गये शोध का प्रकाशन एशियन जर्नल ऑफ होम्योपैथी के फरवरी-अप्रैल 2014 के अंक में हो चुका है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जुलाई माह को Juvenile Arthritis Awareness Month किशोर गठिया जागरूकता माह के रूप में मनाया जाता है। इस मौके पर सेहत टाइम्स से विशेष वार्ता में डॉ गिरीश गुप्ता ने बताया कि बच्चे हो या बड़े सभी में रुमेटॉइड अर्थराइटिस का उपचार का तरीका एक ही है। उन्होंने बताया कि स्टडी बताती है कि रुमेटॉइड एक गैर-अंग विशिष्ट ऑटोइम्यून प्रणालीगत विकार Non-organ specific autoimmune systemic disorder है जो अन्य कारणों के अलावा मनोवैज्ञानिक गड़बड़ी और भावनात्मक तनाव से भी शुरू हो सकता है। यह अस्थियों से संबंधित एक प्रमुख रोग है जिसे संधिवात भी कहते हैं इसमें जोड़ों में सूजन तथा दर्द होता है। शरीर में जिस स्थान पर दो या दो से अधिक अस्थि (बोन) और उपास्थि (कार्टिलेज) मिलती है उसे संधि जोड़ कहते हैं जो शरीर को गति प्रदान करते हैं। संधियों के बीच उपस्थित झिल्लियों के कारण जोड़ों का परस्पर रगड़ने तथा घिसने से बचाव होता है।
डॉ गुप्ता ने बताया कि आमतौर पर देखा गया है कि रोगी दर्द होने पर इस समस्या को गंभीरता से नहीं लेते हैं तथा दर्द निवारक दवाएं लेते रहते हैं इन दर्द निवारक दवाओं से कुछ देर के लिए राहत अवश्य मिल जाती है लेकिन इससे उनके संपूर्ण शरीर पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ता है, तथा यह अंदर ही अंदर गंभीर रूप में तब्दील होकर तीव्र दर्द तथा शारीरिक विकृतियों के रूप में सामने आता है। दर्दनिवारक दवाओं का दीर्घकालिक उपयोग आरंभ में पेट में दर्द, उल्टी, भूख ना लगना जैसे लक्षणों तथा बाद में आमाशय के अल्सर (गैस्ट्रिक अल्सर) के रूप में सामने आता है। यदि रोगी फिर भी उचित चिकित्सा के स्थान पर दर्द निवारक दवाओं का सेवन करता रहे तो गुर्दे लिवर एवं अन्य महत्वपूर्ण अंगों की गंभीर एवं अपूरणीय क्षति हो सकती है।

आरए फैक्टर व सीआरपी टेस्ट
डॉ गुप्ता ने बताया कि इस बीमारी को डायग्नोज करने के लिए रक्त परीक्षण में आर ए फैक्टर तथा सीआरपी टेस्ट होता है अगर यह धनात्मक पाया जाता है तो यह इस बीमारी की पुष्टि करता है। उन्होंने बताया कि होम्योपैथिक में इसका पूरी तरह से सफल इलाज संभव है, इसके लिए मरीज की हिस्ट्री लेकर इसके मानसिक कारण तलाशने होते हैं। इलाज में होलिस्टिक अप्रोच यानी शारीरिक और मन:स्थिति से सम्बन्धित कारणों की हिस्ट्री ली जाती है। इस पूरी हिस्ट्री को ध्यान में रखकर प्रत्येक मरीज के लिए उसकी प्रकृति के अनुसार दवा का चुनाव किया जाता है, यह आवश्यक नहीं है कि एक दवा किसी एक रोगी को लाभ पहुंचाती है, तो वही दवा सभी रोगियों को फायदा करेगी, क्योंकि सभी मरीजों की प्रकृति एक सी नहीं होती है।
रोग की प्रारम्भिक अवस्था में ही शुरू कर दें उपचार
डॉ गिरीश ने बताया कि रोगी को प्रारंभिक अवस्था में ही दर्द निवारक दवाओं का सहारा न लेकर किसी कुशल होम्योपैथिक चिकित्सक से इलाज करवाना चाहिए क्योंकि जब यह रोग बढ़कर शारीरिक विकृतियों के रूप में सामने आता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है, ऐेसे में रोग को नियंत्रित तो किया जा सकता है लेकिन हो चुकी विकृति को पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सकता है। हालांकि अर्थराइटिस को इस अवस्था में भी होम्योपैथिक चिकित्सा द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है परंतु विकृति को पूरी तरह सही नहीं किया जा सकता है।
जर्नल में प्रकाशित स्टडी
डॉ गुप्ता ने बताया कि गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च में अब तक सैकड़ों मरीजों का इलाज किया गया है। एशियन जर्नल ऑफ होम्योपैथी के फरवरी-अप्रैल 2014 के अंक में प्रकाशित अपने शोध के बारे में उन्होंने बताया कि नवंबर 1996 से जुलाई 2013 तक कुल 250 आर. ए. फैक्टर पॉजिटिव रोगियों को डेटा के विश्लेषण और होम्योपैथिक दवाओं की प्रतिक्रिया के लिए चुना गया था।
रोगी के रूमेटॉयड अर्थराइटिस के निदान की पुष्टि करने और उपचार के 3 महीने बाद आमतौर पर प्रतिक्रिया का आकलन करने के लिए प्रत्येक मामले में आर. ए. फैक्टर का परीक्षण किया गया। अध्ययन में 20 IU/ml या 24 mg/dl से अधिक वाले मामले शामिल किए गए। प्रत्येक मामले का स्वतंत्र रूप से अध्ययन किया गया था और अनुवर्ती मूल्यांकन रुमेटॉयड फैक्टर में कमी पर आधारित था। यह समग्र उपचार के माध्यम से रुमेटॉयड फैक्टर पॉजिटिव मामलों के उपचार में होम्योपैथिक दवाओं की भूमिका को प्रदर्शित करने का एक प्रारंभिक प्रयास था।
उपचार समाप्त होने पर इन सभी मरीजों की आर ए फैक्टर की जांच कराई गई तो इनमें 250 केसेज में 98 मरीजों का आर ए फैक्टर नार्मल रेंज में आ गया जबकि 72 मरीजों में आर ए फैक्टर का लेवल पहले से कम हुआ। जबकि 80 मरीज ऐसे रहे जिन्हें लाभ नहीं हुआ। यह स्टडी भी एशियन जर्नल ऑफ़ होम्योपैथी के फरवरी 2014 से अप्रैल 2014 के अंक में छपी है।

