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बच्चों की नजर पर रखें अपनी पैनी नजर, कहीं बिगड़ न जाये आंखों का मस्तिष्क के साथ समन्वय

-हेल्थ सिटी विस्तार की नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ पूजा कनोडिया ने विशेष मुलाकात में मायोपिया पर दी विस्तार से जानकारी

 

सेहत टाइम्स/धर्मेन्द्र सक्सेना

लखनऊ। यदि चिकित्सक ने बच्चे को चश्मा लगाने की सलाह दी है तो इसे लगवाना सुनिश्चित करें, इसमें लापरवाही न करें, आपकी छोटी सी लापरवाही बच्चे के लिए घातक हो सकती है, क्योंकि देखने का काम सिर्फ आंखें ही नहीं करती हैं, इसमें मस्तिष्क की भी भूमिका होती है, दोनों के बीच समन्वय आवश्यक है। अभिभावकों के लिए मेरी सलाह है कि अगर बच्चा चीजों को बहुत नजदीक से देख रहा हो, आंखें मींचकर देख रहा हो अथवा आंखों में बार-बार संक्रमण हो रहा हो तो उसे नेत्र विशेषज्ञ को जरूर दिखायें, बच्चे की कमजोर होती नजर (दृष्टि) पर अपनी नजर अवश्य रखें, इसे इग्नोर न करें।

यह कहना है हेल्थ सिटी विस्तार सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल की नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ पूजा कनोडिया का। जुलाई माह, जो कि Healthy Vision Month कहा जाता है, के मौके पर देश के भविष्य यानी बच्चों की कमजोर होती नजरों को जल्दी डायग्नोज करने, उसका उपचार करने के महत्व को लेकर ‘सेहत टाइम्स’ के साथ विशेष बातचीत में डॉ पूजा ने कहा कि आजकल मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, लैप टॉप, टैबलेट, टेलीविजन जैसे उपकरणों की स्क्रीन के साथ टाइमिंग बढ़ने के कारण मायोपिया Myopia यानी बच्चों की दूर की दृष्टि कमजोर होने के मामले बढ़ रहे हैं, इस समस्या से निपटने के लिए सर्वोत्तम स्थिति तो यही है कि हम बच्चों को जितना हो सके, कम से कम स्क्रीन का सामना करने दें, साथ ही अगर नजर कमजोर हो चुकी है तो एक कुशल नेत्र चिकित्सक से मिलें, जिससे शीघ्र डायग्नोसिस हो सके और जरूरत के अनुसार चश्मा या अन्य प्रकार का उपचार किया जा सके।

उन्होंने बताया कि मायोपिया में बच्चों को दूर के दिखने में प्रॉब्लम होती है। उन्होंने कहा कि वास्तव में आंख का काम होता है देखना, और जो रोशनी की किरणें होती हैं वह रेटिना पर फोकस होती हैं, मायोपिया में कुछ आंख की बनावट ऐसी होती है कि रोशनी की किरणें रेटिना पर फोकस ना होकर रेटिना के आगे फोकस होती हैं, जिसकी वजह से बच्चे को चश्मे की सहायता से ही क्लियर दिखाई देता है, अन्यथा नहीं दिखता।

मायोपिया होने के कारण

उन्होंने बताया कि इसके कारणों की बात करें तो पहला है जेनेटिक, यानी जन्म से ही आंख की बनावट। यह बनावट ऐसी है जिससे आंख का साइज सामान्य से बड़ा है, दूसरा कारण है कि अगर माता-पिता दोनों को चश्मा लगा है, तो बच्चे को चश्मा लगने की संभावना काफी ज्यादा होती है। यही नहीं अगर बच्चे की किसी बहन, भाई को चश्मा लगा है तो भी बच्चे को मायोपिया होने के चांसेस ज्यादा होते हैं, इसके अलावा तीसका कारण जो आजकल बहुत बढ़ गया है, वह है डिजिटल आई स्ट्रेन यानी डिजिटल उपकरणों के उपयोग से बच्चों को होने वाला तनाव या थकान। यह किसी भी फॉर्म में हो सकता है आईपैड, मोबाइल टैबलेट यहां तक कि टेलीविज़न की स्क्रीन का अत्यधिक उपयोग। उन्होंने बताया कि पहले एक निर्धारित समय तक देखने के लिए ही तो आंखों का प्रयोग होता था और आज स्थिति यह हो गयी है कि हम हर समय आंखों पर जोर दे रहे हैं1

शीघ्र डायग्नोसिस जरूरी

डॉ पूजा ने बताया कि मायोपिया की शीघ्र डायग्नोसिस के लिए एक तो यह बहुत जरूरी है कि आप बच्चे का रूटीन आई चेकअप करायें, यह चेकअप 1 साल पर, 3 साल पर और 5 साल पर। बच्चे का रूटीन आई चेक अप क्वालीफाइड आई स्पेशलिस्ट से होना चाहिए, स्कूल जाने वाले बच्चों में इसकी पहचान में टीचर्स की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। टीचर्स कई बार यह बताते हैं कि आपका बच्चा स्पेलिंग गलत लिखता है, ब्लैकबोर्ड से गलत कॉपी करके लिखता है और या फिर कक्षा में उसे आगे बैठाने पर ही दिखता है पीछे बैठकर नहीं दिखता तो यह सब इस बात की ओर इशारा करता है कि हमारे बच्चे का वजन क्लियर नहीं है, इन बातों को चेतावनी चिन्ह मानते हुए आई स्पेशलिस्ट से बच्चे की आंखों की जांच करायें।

डॉ पूजा ने बताया कि यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि बेसिकली जो देखने का काम होता है वह केवल आंखों का नहीं होता, आंखों का ब्रेन के साथ कोऑर्डिनेशन होता है तो अगर सही समय पर बच्चों को चश्मा न लगा तो वह कोऑर्डिनेशन खराब हो सकता है और आगे जाकर बच्चों को लेजी आई की शिकायत हो सकती है।

मायोपिया डायग्नोज हो क्या करें

डॉ पूजा बताती हैं कि सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जांच के बाद डॉक्टर जो चश्मा का नंबर दें, आपको वह चश्मा बच्चे को लगाना है, और लगातार लगाना है, ऐसा नहीं है कि कुछ टाइम लगायें, खेलते समय भी चश्मा लगाना है और चश्मे को अवॉइड नहीं करना है, इससे यह होता है कि बच्चा धीरे-धीरे कंफर्टेबल हो जाता है तो वह खुद भी लगाता है।

कैसा चश्मा लेना चाहिये

डॉ पूजा ने बताया कि चश्मे का फ्रेम ऐसा होना चाहिए जो थोड़ा बड़ा हो जिससे पूरी आंख कवर हो जाये, चश्में के लेंस फाइवर के हों तो ज्यादा अच्छा है क्योंकि अगर चोट लगने की वजह से ग्लास के लैंसेज टूटे तो बच्चे की आंख में डैमेज हो सकता है।
मायोपिया की रोकथाम के लिए क्या करें

डॉ कनोडिया ने बताया कि इसकी आधी रोकथाम तो माता-पिता के पास ही है सबसे पहले डिजिटल डिवाइसेज को जितना कम हो सके उतना बच्चों को एडवाइस करिए क्योंकि बहुत लंबे समय तक काम करने से आई की मसल्स थक जाती है जिसकी वजह से चश्में के नंबर भी बढ़ने के चांसेस होते हैं। उन्होंने कहा कि अगर बहुत जरूरी है तो बच्चों को कहें कि 20 मिनट के बाद 20 सेकंड का ब्रेक लें और 20 फीट दूर देखें, इसे रूल ऑफ 20-20-20 कहा जाता है। आउटडोर एक्टिविटीज को बढ़ावा दें, क्योंकि बच्चे धीरे-धीरे जैसे इनडोर गेम्स पर निर्भर होते जा रहे हैं। आउटडोर एक्टिविटीज से आंख की मसल्स भी रिलैक्स होती है, धूप के सम्पर्क में आने से विटामिन डी मिलता है जिससे बच्चे की ग्रोथ में भी मदद मिलती है।

चश्मे का नम्बर प्रत्येक छह माह में चेक करायें

डॉ पूजा ने बताया कि एक बार चश्मा लगने के बाद हर 6 महीने पर बच्चों की आंख चेक करें, क्योंकि सामान्यत: 18 वर्ष की आयु तक चश्मे का नम्बर बदल सकता है, इसके बाद ही स्टेबिल होता है, लेकिन कई बार यह स्टेबिलिटी 20-21 साल की उम्र तक आ पाती है। रंगीन फलों-सब्जियों का सेवन बच्चों को कराना चाहिये।

चश्मे के अलावा भी हैं उपचार के विकल्प

डॉ पूजा ने बताया कि मायोपिया के उपचार के तरीके में सबसे सिंपल और सबसे पहले जो सलाह दी जाती है वह है चश्मा लगाना, दूसरा तरीका है कि एक उम्र के बाद जब बच्चा हैंडल कर सके तो कॉन्टेक्ट लेंस लगाया जा सकता है। तीसरा विकल्प है सर्जरी, इसमें लेजर की मदद से चश्मे का नम्बर पूरी तरह हटाया जा सकता है। लेकिन यह सर्जरी 18 से 21 वर्ष की आयु होने पर जब नजर स्टेबिल हो जाये तभी की जाती है। उन्होंने बताया कि कई बार नम्बर बहुत ज्यादा बढ़ जाता है जिसे पैथोलॉजिकल मायोपिया भी कहते हैं इस केस में रेटिना में भी बदलाव आ सकते हैं इसलिए नियमित रूप से चेकअप कराना बहुत जरूरी है। डॉ पूजा ने बताया कि चश्मे का नम्बर बहुत ज्यादा हो, कार्निया अच्छी थिकनेस की न हो तो ऐसे मरीजों के लिए आजकल फेकिक आईओएल वरदान के रूप में आ गया है, इसमें बहुत पतला, बाल से भी पतला लेंस आंख के अंदर डाल देते हैं और चश्मे का नंबर हमेशा के लिए चला जाता है, यह सर्जरी 5 से 7 मिनट की होती है जो कि हमारे अस्पताल में रूटीन में की जा रही है।

 

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