-इंडियन चेस्ट सोसाइटी और नेशनल कॉलेज ऑफ चेस्ट फिजीशियन ने तैयार की है गाइडलाइन
सेहत टाइम्स ब्यूरो
लखनऊ। कई बीमारियों का एक बड़ा समूह इंटरस्टीर्शियल लंग डिजीज (आई0एल0डी0) के प्रबंधन के लिए भारतीय गाइडलाइन का अमेरिकन थोरेसिक सोसाइटी और एशियाई पैसिफिक सोसाइटी ऑफ रेस्पाइरोलोजी द्वारा अनुमोदन एवं समर्थन किया गया है। इंडियन चेस्ट सोसाइटी (आईसीएस) और नेशनल कॉलेज ऑफ चेस्ट फिजीशियन (एन0सी0सी0पी0) द्वारा आई0एल0डी0 के प्रबंधन पर तैयार की गयी गाइडलाइन 1 जुलाई, 2020 को लंग इंडिया जर्नल में प्रकाशित की गयी है। यह पल्मोनोलॉजी के भारतीय इतिहास में पहली बार हुआ है कि दो बहुत ही महत्वपूर्ण अंतराष्ट्रीय चिकित्सा सोसाइटीज ने किसी भी बीमारी के लिए भारतीय गाइडलाइन का समर्थन किया है। नेशनल कालेज ऑफ चेस्ट फिजीशियन 2019-2020 के अध्यक्ष डॉ सूर्यकांत, डॉ वीरेन्द्र सिंह (जयपुर) तथा डा0 गणेश रघु (वाशिंग्टन, अमेरिका) के नेतृत्व एवं मार्गदर्शन में देश के प्रख्यात विषय विशेषज्ञों की सहायता से ये गाइडलाइन तैयार की गयी है।
नेशनल कालेज ऑफ चेस्ट फिजीशियन 2019-2020 के अध्यक्ष तथा केजीएमयू के रेस्पारेटरी मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ सूर्यकांत ने यह जानकारी देते हुए बताया कि आईएलडी को डायग्नोस करने में अक्सर चूक हो जाती है क्योंकि इसके लक्षण टीबी के लक्षणों से बहुत मेल खाते हैं इसलिए लम्बे-लम्बे समय तक आईएलडी के बजाये टीबी का इलाज होता रहता है। उन्होंने बताया कि आई0एल0डी0 की भारतीय गाइडलाइन, समय की आवश्यकता है।
डॉ सूर्यकांत ने बताया कि आई0एल0डी0 बीमारी से जुडे़ फाइब्रोसिस अंततः आपके रक्त प्रवाह में सांस लेने और पर्याप्त ऑक्सीजन प्राप्त करने की क्षमता को प्रभावित करता है। यह दो सौ से अधिक फेफड़ों की बीमारियों के एक समूह को संदर्भित करता है। जो कि एक साथ समूहीकृत होते है, इन बीमारिया के समूह को कभी-कभी डिफ्यूज पैरेन्काइमल लंग डिजीज (डी0पी0एल0डी0) भी कहा जाता है।
क्या होते हैं इसके कारण
डॉ सूर्यकांत बताते हैं कि कुछ कारक व्यक्ति को आई0एल0डी0 के रोगों के लिए अति संवेदनशील बनाते हैं, यह मुख्य रूप से व्यस्कों और बुजुर्गों को प्रभावित करता है। जो लोग खेती, खनन और निर्माण कार्य मे काम करते हैं, उनको अधिक जोखिम होता है। धूम्रपान और गैस्ट्रोओसोफेगल रिफलक्स के साथ भी आई0एल0डी0 का सम्बन्ध होता है।
उन्होंने बताया कि यह बीमारी कई विषों और प्रदूषकों के दीर्घकालिक सम्पर्क में आने से भी होती है। इसमें सिलिका, धूल, एस्बेस्टस, फाइबर, अनाज की धूल, पक्षी और जानवरों की बूंदें, विकिरण उपचार, इंडोर हॉट टब आदि के कारण होती है।
डॉ सूर्यकांत बताते हैं कि कई दवाएँ भी आई0एल0डी0 का कारण बन सकती है, ये कीमोथेरेपी दवाएं (मेथेट्रेक्सेट और साइक्लोफॅास्माईड) हो सकती है। दिल की दवाएं जैसे अमियोडोरेन या प्रोपानोलोन, एटिबायोटिक्स जैसे नाइट्रोफ्यूरेरेंटायन और एथमब्यूटाल और एंटी इन्फ्लेमेटरी दवाएं जैसे रिटुक्सीमैब या सल्फासालाजीन भी हो सकती है। कई ऑटोइम्यून बीमारियों से भी हो सकती है जैसे रयुमैटायॅाड आर्थराइटिस तथा स्कलेरोडर्मा। लेकिन कई बार आई0एल0डी0 अज्ञात कारणों से भी हो सकती है। यदि कारण अज्ञात है तो इसे इडियोपैथिक पल्मोनरी फाइबरोसिस (आई0पी0एफ0) के रूप में जाना जाता है।
क्या हैं आईएलडी के लक्षण
आई0एल0डी0 का पहला लक्षण लगातार सूखी खांसी आना है। बाद में रोगी को सांस की तकलीफ हो सकती है। जो तेजी से बढ़ जाती है। कुछ प्रकार के आई0एल0डी0 से घरघराहट, सीने मे दर्द, और थूक मे खून हो सकता है। बाद में रोगी बेड और ऑक्सीजन पर निर्भर हो सकता है। इन लक्षणों के कारण चिकित्सक अक्सर टी0बी0, अन्य श्वसन समस्याओं जैस अस्थमा, सी0ओ0पी0डी0 आदि से भ्रमित हो सकते हैं। बीमारी के अंतिम इसका असर हृदय व अन्य अंगों पर भी पड़ सकता है।
कैसे करें आई0एल0डी0 को डायग्नोस
सांस की तकलीफ या खांसी के कारण आमतौर पर आई0एल0डी0 की बीमारी वाले लोग डॉक्टर के पास जाते हैं। सटीक निदान के लिए चेस्ट एक्स रे, हाई रेजोल्यूशन सी0टी0 स्कैन, लंग फंक्शन टेस्ट और कभी कभी ब्रांकोस्कोपी और लंग बायोप्सी की जरूरत पड़ सकती है। अधिकांश मामलों मे चेस्ट का हाई रिजोलूशन, सी0टी0 स्कैन आई0एल0डी0 के निदान के लिए एक स्वर्ण मानक परीक्षण (गोल्ड स्टैन्डर्ड टेस्ट) माना जाता है।
एक बार निदान की पुष्टि हो जाने के बाद उपचार शुरू किया जा सकता है, आई0एल0डी0 में ज्ञात कारणों से हम अंतनिर्हित कारणों का इलाज करेंगे। आई0एल0डी0 रोगी के एक्यूट एक्सरबेशन में कॉर्टिकोस्टेरॉइड के साथ इलाज किया जा सकता है। अज्ञात कारणों के साथ आई0एल0डी0 मे दो दवाएं यू0एस0एफ0डी0ए0 द्वारा अनुमोदित है ये है परफेनिडोन और निंटेडेनिब। अंतिम अवस्था में रोगी का उपचार ऑक्सीजन थेरेपी से किया जा सकता है। फेफड़ो का प्रत्यारोपण स्पष्ट रूप से एक कारगर उपचार है जिसे दीर्घकालिक ऑक्सीजन थेरेपी के रोगियों में किया जा सकता है।
भारतीय आई0एल0डी0 रजिस्ट्री
भारत मे आई0एल0डी0 की विषेषताओं को जानने के लिए एक अध्ययन किया गया था। तब भारत में विभिन्न प्रकार के आई0एल0डी0 के प्रचलन के बारे में सीमित ज्ञान था। इंण्डिन चेस्ट सोसाइटी 2016-2017 के अध्यक्ष डॉ सूर्यकान्त के कुशल मार्गदर्शन और नेतृत्व में इस रजिस्ट्री का 15 मार्च 2017 को प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका, अमेरिकन जर्नल, ऑफ रेस्पाइरेटरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसिन में प्रकाशन हुआ। इस अध्ययन में 19 भारतीय शहरों के 27 केन्द्रों में किया गया था। जिसमें कुल 1084 रोगियों को शामिल किया गया। इस अध्ययन में विभिन्न
प्रकार के आई0एल0डी0 का विवरण इस प्रकार था। 47.3 प्रतिशत हायपर सेंसटिविटी न्यूमोनाईटिस (एच0एस0आई0एल0डी0), 13.9 प्रतिशत कनेक्टिव टिशु डिसऑडर सम्बंधित आई0एल0डी0 (सी0टी0डी0आई0एल0डी0) 13.7 प्रतिशत इडियोपैथिक पल्मोनरी फाईब्रोसिस (आई0पी0एफ0), 8.5 प्रतिशत इडियोपैथिक नॉन
स्पेसिफिक इंटरस्टिशियल न्यूमोनाटिस (आई0एन0एस0आई0पी0), 7.8 प्रतिशत सारकोडोसिस, 03 प्रतिशत न्यूमोकोनियोसिस और 5.7 प्रतिशत अन्य । इस अध्ययन मे निष्कर्ष निकाला गया था कि भारत में हाईपर
सेंस्टिविटी न्यूमोनाइटिस (एच0एस0आई0एल0डी0) सबसे ज्यादा पायी जाने वाली आई0एल0डी0 है और इसमें लगभग आधे लोगों में एयर कूलर कारण होता है। यह अध्ययन न केवल भारतीय चिकित्सा समाज के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए आंखों की पट्टी खोलने जैसा था।