-पाइका डिसऑर्डर के बारे में जानकारी दे रहीं क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट सावनी गुप्ता
सेहत टाइम्स
लखनऊ। दीवार के पेंट, चॉक, क्रेयॉन जैसी चीजें जो खानेयोग्य नहीं हैं, इन्हें बच्चा या बड़ा खाता है, तो ऐसी स्थिति को पाइका (Pica) डिसऑर्डर कहते हैं, यह एक प्रकार का साइकोपैथोलॉजिकल डिसऑर्डर होता है। यह वैसे तो बच्चों में बहुत कॉमनली पाया जाता है, लेकिन ऑटिज्म आदि बीमारियों वाले बच्चों में बहुत ज्यादा पाया जाता है। लेकिन पाइका डिसऑर्डर अगर इतने खतरनाक स्तर पर जा रहा है कि व्यक्ति खाने वाली चीजों, न खाने वाली चीजों और गंभीर नुकसान पहुंचाने वाली चीजों के बीच अंतर न कर पाए और शरीर के लिए घातक चीजें जैसे सेफ्टी पिन, ब्लेड, कील खाने लगे तो यह स्थिति गंभीर है, यह इसलिए भी हो सकता है कि व्यक्ति खुद को नुकसान पहुंचाना चाह रहा हो। यह भी संभव है कि ऐसे लोग दूसरे मनोरोग जैसे पर्सनालिटी डिसऑर्डर या साइकोसिस (सिजोफ्रेनिया) से भी ग्रस्त हों ऐसे में मरीज को मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक की देखरेख में ट्रीटमेंट के साथ फैमिली सपोर्ट की आवश्यकता होती है।
यह कहना है कपूरथला, अलीगंज स्थित फेदर्स-सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ की फाउंडर, क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता का। आपको बता दें कि आजकल सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हो रहा है जिसमें सर्जरी के दौरान एक लड़की के पेट से बड़ी मात्रा में सेफ्टी पिन निकाले जा रहे हैं, बताया जाता है कि इस लड़की को सेफ्टी पिन खाने की ऐसी लत लगी कि जब उसके पेट में दर्द हुआ और वह डॉक्टर के पास पहुंची तो डॉक्टर्स को असलियत का पता चला। वीडियो में डॉक्टर भी इतनी बड़ी संख्या में सेफ्टी पिन खाने पर आश्चर्य जता रहे हैं।
सावनी ने बताया कि इस तरह की सिचुएशन में निश्चित रूप से फिजिकली ट्रीटमेंट तो देना जरूरी है जैसे कि इस केस में डॉक्टर द्वारा सर्जरी कर हार्मफुल आइटम्स निकाले गए लेकिन साथ ही मरीज की हिस्ट्री जानते हुए उसका मनोवैज्ञानिक इलाज भी आवश्यक है। क्योंकि अगर हिस्ट्री जानकर कारण का निवारण नहीं किया गया तो बीमारी बढ़ती रहती है और आत्महत्या जैसी प्रवत्ति भी बढ़ सकती है। ऐसे व्यक्ति की हिस्ट्री अगर देखी जाये तो पाया जाता है कि पहले कभी घर का माहौल ख़राब रहा हो, यौन उत्पीड़न हुआ हो, या ऐसा कुछ रहा हो जिसमें चीजों को समझने, उनसे नुकसान होने की बात समझने की समझ समाप्त हो गयी हो जिसमें सेल्फ हार्म की टेंडेंसी बढ़ जाती है।
सावनी ने कहा कि जितनी भी रिसर्च की गई हैं उसमें ट्रीटमेंट बहुत स्लो रहता है क्योंकि ऐसे मरीज ट्रीटमेंट में, दवाइयां में बहुत कंसिस्टेंट नहीं रहते हैं इसलिए अगर फैमिली का सपोर्ट है या थोड़ा ज्यादा उनके ऊपर प्रेशर डाला जाये और उनको रिग्रेसिव कंटीन्यूअस ट्रीटमेंट में रखेंगे तो बहुत ज्यादा बेनिफिट्स और फायदे होते हैं।
उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति में सिर्फ थेरेपी पर भी नहीं डिपेंड कर सकते इन सब चीजों को ओवरऑल मैनेज करने के लिए फिजिकल, साइकोलॉजिकली, दवा और एक्सेसिव फैमिली सपोर्ट की जरूरत होती है।