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1994 के बाद से सेवा नहीं, व्‍यवसाय बन गया चिकित्‍सकीय पेशा

-डॉक्‍टर्स डे (1 जुलाई) पर केजीएमयू के रेस्‍परेटरी मेडिसिन विभाग के हेड डॉ सूर्यकांत की कलम से

डॉ सूर्यकान्त

डॉ सूर्यकान्‍त का मानना है कि चिकित्सकीय पेशा पैसा कमाने का व्यवसाय नहीं है, बल्कि यह मानव सेवा का ऐसा माध्‍यम है, जिसका मौका ईश्‍वर ने आपको दिया है, डॉ सूर्यकांत कहते हैं कि जब आप किसी का जीवन बचाते हैं तो उसकी और उसके परिवार की दुआएं भी आपको मिलती हैं, इन दुआओं का कोई मोल नहीं होता…

 

 

भारतीय चिकित्सक, डॉ बी.सी. रॉय के जन्म एवं निर्वाण दिवस, (1 जुलाई) को ”चिकित्सक दिवस“ के रूप मे मनाते हैं। भारत रत्न डा0 बिधान चन्द्र रॉय का जन्म 1 जुलाई, सन् 1882 को तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेन्सी के अंतर्गत बांकीपुर (अब पटना) में हुआ था एवं उनकी मृत्यु 1 जुलाई 1962 को हुई। वे एक प्रख्यात चिकित्सक, स्वतंत्रता सेनानी, सफल राजनीतिज्ञ तथा समाजसेवी के रूप में याद किये जाते हैं।

एक समय था जब मरीज व उसके परिजन डाक्टरों को भगवान का दर्जा देते थे। चिकित्सा सेवा भी अब सेवाएं नहीं रही, सर्विसेज हो गई हैं, व उनमें व्यावसायिकता हावी हो चुकी है। पहले चुनिन्दा डाक्टर दूर-दूर तक अपने नाम और कौशल की अच्छाइयों के लिये जाने जाते थे। अब डाक्टर नहीं कॉरपोरेट अस्पतालों, स्पेशलाइजेशन और सुपर स्पेशलाइजेशन का दौर है। समाज, डाक्टरों को ईश्वर के रूप में नहीं देखता बल्कि उसे लगता है कि ज्यादातर चिकित्सक येन केन प्रकारेण इलाज के दौरान धन के दोहन में लगे रहते हैं।

निजीकरण और व्यवसायीकरण के इस युग में पूंजी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। इसके फायदे कम हुए हैं, नुकसान ज्यादा। पूंजी बढ़ने से तकनीक और आधारभूत ढांचे में क्रांतिकारी सुधार हुए हैं। गांवों और कस्बों में पेड़ के नीचे खाट और बदहाल अस्पतालों में इलाज का दौर से अब सेवेन स्टार होटल नुमा अस्पतालों तक आ पहुंचा है। इससे जहां एक ओर इलाज की गुणवत्ता बढ़ी है तो वहीं दूसरी ओर खर्चे भी बढ़े हैं। वर्ष 1994 में जब चिकित्सकीय पेशे को भी उपभोक्ता अधिनियम (कन्ज्यूमर एक्ट) में शामिल कर लिया गया, तब से यह चिकित्सकीय पेशा सेवा का माध्यम न हो कर एक व्यवसाय बन गया। इसे एक छोटे उदाहरण से समझिये कि जब आप ढाबे पर दाल खाते हैं तो लगभग 100 रुपये में मिल जाती है, पर इसी दाल की कीमत स्टार होटल में पांच गुनी से भी ज्यादा हो जाती है। भारत में ज्यादातर प्राइवेट अस्पताल/नर्सिंग होम अब एक व्यवसाय हैं और कई बार इसके मालिक डॉक्टर न हो कर व्यवसायी ही होते हैं। ऐसे अस्पतालों को बनाने और चलाने में बहुत खर्चा आता है अतः यहां इलाज भी महंगा ही होगा लेकिन रोगी के परिजन बड़े आराम से कह देते हैं कि हमें तो लूट लिया। यह सोच ठीक नहीं है। इन बेतहाशा बढ़े खर्चों का अर्थशास्त्र भी डाक्टरों से मरीजों के सम्बन्धों का मनोविज्ञान और मानसिकता बदल रहा है।

डाक्टरों से समाज के रिश्ते पूरी तरह से व्यवसायिक हों फिर भी उसमें आत्मीयता, मानवीयता और परस्पर सम्मान का होना नितान्त आवश्यक है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र के महान मनीषी चरक ने क्या खूब कहा था कि मरीज चिकित्सक को चिकित्सा सेवा या परामर्श के बदले फीस (धन) दे सकता है या सम्मान दिया जा सकता है या फिर कोई उपहार दे सकता है। ये भी न हो सके तो वह उसके कौशल का प्रचार कर उसके उपकार से निवृत्त हो सकता है। अगर कोई मरीज ऐसा करने में भी अक्षम हो तो वह ईश्वर से उस चिकित्सक के कल्याण की प्रार्थना करे।

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