-पेंचकस से मां की हत्या करने वाले बेटे जैसे लोगों के मनोविज्ञान पर महत्वपूर्ण जानकारी
-‘विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस’ पर क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता से भेंट वार्ता

धर्मेन्द्र सक्सेना/सेहत टाइम्स
लखनऊ। विश्व मानसिक स्वास्थ्य महासंघ की पहल पर विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाने की शुरुआत 10 अक्टूबर, 1992 को हुई थी। मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के दायरे को लगातार बढा़ते हुए 34 वर्षों का सफर गुजर चुका है। इस तरह के दिवसों के आयोजन का मुख्य उद्देश्य ही यही होता है कि सम्बन्धित विषय पर ध्यान केंद्रित करके उस दिशा में कुछ सार्थक किया जाये। हमें घटनाओं के बारे में बराबर कुछ न कुछ सुनायी पड़ता रहता है। इन्हीं में एक घटना ने दिल और दिमाग को बिल्कुल स्तब्ध करके रख दिया, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की इस घटना में 20 वर्ष के बेटे ने अपनी ही मां की पेंचकस से वार कर हत्या कर दी। सोचकर देखिये जिस मां ने नौ माह अपनी कोख में रख अपने खून से सींच कर जिस बेटे को जन्म दिया उसने अपनी मां को मौत के घाट उतारने का घिनौना कृत्य किया। विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के मौके पर इस वीभत्स सोच के पीछे का मनोविज्ञान और ऐसी स्थिति को संभालने के लिए क्या किया जाना चाहिये जैसी जानकारियों के लिए ‘सेहत टाइम्स’ ने मन के विज्ञान को समझने की कला में निपुण क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता से मुलाकात की। अलीगंज में मानसिक स्वास्थ्य केंद्र ‘फेदर्स’ नाम के संस्थान को संचालित करने वाली सावनी गुप्ता ने हमारे सवाल के जवाब में जो बताया उसे उसी तरह यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
सावनी ने कहा कि लखनऊ में घटी एक दर्दनाक घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि डिजिटल गेमिंग की लत हमारे युवाओं को किस हद तक मानसिक और सामाजिक स्तर पर प्रभावित कर रही है। एक 20 वर्षीय युवक ने कथित तौर पर अपनी माँ की हत्या स्क्रूड्राइवर से कर दी, मां ने उसे आभूषण चोरी करते पकड़ा था। युवक ने ये चोरी उस पैसे को लौटाने के लिए की थी जो उसने गेमिंग ऐप्स पर खर्च करने के लिए उधार लिया था।
यह केवल एक आवेगपूर्ण हिंसा की घटना नहीं है — यह इस बात का प्रतिबिंब है कि अनियंत्रित गेमिंग की लत और भावनात्मक असंतुलन किस तरह युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से नुकसान पहुँचा रहे हैं।
अपराध के पीछे का मनोविज्ञान
सावनी का कहना है कि ऐसी घटनाओं के पीछे अक्सर चार प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण पाए जाते हैं —
आसक्ति (Addiction), आवेग नियंत्रण की कमी, भावनात्मक असंतुलन, और नैतिक विच्छेदन (Moral Disengagement)। गेमिंग एडिक्शन, जिसे अब ICD-11 में “Gaming Disorder” के रूप में मान्यता प्राप्त है, निम्नलिखित विशेषताओं से पहचाना जाता है:
-गेमिंग व्यवहार पर नियंत्रण का अभाव
-जीवन की अन्य ज़रूरी गतिविधियों की तुलना में गेमिंग को प्राथमिकता देना
-नकारात्मक परिणामों के बावजूद गेमिंग जारी रखना
जब गेमिंग एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता बन जाती है, तो यह मस्तिष्क के उसी रिवार्ड सिस्टम को सक्रिय करती है जो नशे (substance addiction) में होता है। बार-बार डोपामिन रिलीज़ होने से व्यक्ति एक “क्रेविंग Craving यानी लालसा (जो तनाव या चिंता की स्थिति में डोपामीन बढ़ाने के लिए होती है) और सैटिस्फैक्शन Satisfaction यानी संतुष्टि” के चक्र में फँस जाता है और उसे वास्तविक जीवन की खुशियाँ फीकी लगने लगती हैं।
ऐसे में जब वह व्यक्ति किसी भी वजह से गेमिंग से वंचित होता है (जैसे माता-पिता द्वारा प्रतिबंध, पैसे की हानि, या टकराव) तो उसकी निराशा सहने की क्षमता (Frustration tolerance) टूट जाती है, यह “फाइट या फ्लाइट” (Fight-Flight) प्रतिक्रिया को सक्रिय कर देता है, और क्रोध आवेगपूर्ण बन जाता है। यदि व्यक्ति में पहले से कम सहनशीलता, अस्वीकृति का इतिहास, कमज़ोर पारिवारिक जुड़ाव या विरोधी सामाजिक प्रवृत्तियाँ मौजूद हों, तो हिंसा की संभावना और बढ़ जाती है।
ऐसी घटनाएँ क्यों बढ़ रही हैं, इस विषय में सावनी बताती हैं कि इसकी कई वजहें हैं
1. डिजिटल पहुँच में आसानी और निगरानी की कमी:
गेमिंग ऐप्स को जानबूझकर आकर्षक और लत लगाने वाला बनाया जाता है। इन-ऐप खरीदारी और रिवॉर्ड पॉइंट्स लगातार उपयोगकर्ता को बाँधे रखते हैं।
2. भावनात्मक अलगाव और डिजिटल पलायन:
कोविड के बाद कई युवा वास्तविक जीवन से कट चुके हैं। तनाव, अकेलापन और आत्मसम्मान की कमी उन्हें आभासी दुनिया की ओर धकेलती है।
3. साथियों का प्रभाव और ऑनलाइन प्रतिस्पर्धा:
ऑनलाइन रैंकिंग और वर्चुअल तुलना युवाओं में दबाव और आक्रामकता बढ़ाती है।
4. पारिवारिक संवाद का अभाव:
जब परिवार केवल डाँटने या सज़ा देने का तरीका अपनाते हैं, तो बच्चे अपराधबोध और विद्रोह में और अधिक उलझ जाते हैं।
5. मानसिक स्वास्थ्य की समझ का अभाव:
अक्सर माता-पिता इसे “बस एक आदत” या “फेज़” समझकर नज़रअंदाज़ कर देते हैं, जिससे स्थिति गंभीर हो जाती है।
इसके प्रति जागरूकता फैलाने और इसकी रोकथाम के लिए क्या उपाय किये जायें इस बारे में सावनी सुझाव देती हैं कि
1. शुरुआती पहचान:
अभिभावक और शिक्षक यह पहचानें कि बच्चा सामाजिक गतिविधियों से दूर हो रहा है, डिवाइस छीने जाने पर चिड़चिड़ा हो रहा है, या पढ़ाई-नींद पर असर पड़ रहा है।
2. डिजिटल हाईजीन शिक्षा:
स्कूल और कॉलेजों में जिम्मेदार डिजिटल उपयोग, डोपामिन प्रबंधन और गेमिंग एडिक्शन के लक्षणों पर नियमित सत्र आयोजित किए जाएँ।
3. पारिवारिक संवाद और थेरेपी:
घर में खुले संवाद को बढ़ावा दें, दंड या डांट की जगह समझदारी और सहानुभूति अपनाएँ।
4. अभिभावकीय नियंत्रण उपकरण:
स्क्रीन टाइम सीमित करने वाले और इन-ऐप खरीदारी पर रोक लगाने वाले ऐप्स का उपयोग करें।
5. सरकारी और कानूनी हस्तक्षेप:
गेमिंग ऐप्स के विज्ञापनों, रिवार्ड सिस्टम और भुगतान प्रक्रिया पर सख़्त नियम लागू किए जाएँ।
इस विशेष मामले में कानूनी और चिकित्सीय दृष्टिकोण
1. कानूनी प्रक्रिया:
इस अपराध की गंभीरता को देखते हुए कानूनी कार्रवाई आवश्यक है, लेकिन साथ ही Mental Health Care Act (MHCA), 2017 के तहत अपराधी का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
यदि उसे Impulse Control Disorder, Gaming Disorder या Psychotic Episode जैसी मानसिक स्थिति का निदान होता है, तो अदालत दंड के साथ-साथ मनोचिकित्सीय पुनर्वास का निर्देश दे सकती है।
2. चिकित्सीय हस्तक्षेप:
बहु-स्तरीय (multi-layered) थेरेपी की आवश्यकता होगी, जिसमें शामिल हों —
मनोचिकित्सीय मूल्यांकन
Cognitive Behavioural Therapy (CBT) और Motivational Interviewing
क्रोध नियंत्रण और भावनात्मक नियमन प्रशिक्षण
पारिवारिक थेरेपी
सामाजिक और व्यावसायिक पुनर्वास कार्यक्रम
सावनी ने यह भी कहा कि यह घटना केवल हिंसा की कहानी नहीं है — यह समाज के उस दर्द का प्रतिबिंब है जहाँ भावनात्मक उपेक्षा, डिजिटल लत और मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी मिलकर त्रासदी बन जाते हैं। ऐसे में हमें मानसिक स्वास्थ्य को “व्यवहारिक समस्या” कहकर नज़रअंदाज़ करना बंद करना होगा। समय पर हस्तक्षेप, सहानुभूतिपूर्ण संवाद और जिम्मेदार डिजिटल आदतें ही ऐसी घटनाओं को रोकने का रास्ता हैं।


