-दुर्गा सप्तशती के 11वें अध्याय में दिये मंत्रों के पाठ से दूर हो सकता है कोरोना
सेहत टाइम्स ब्यूरो
लखनऊ। दुर्गा सप्तशती के 11वें अध्याय में दिये मंत्रों से देवताओं ने माता दुर्गा की स्तुति की थी, इस स्तुति से प्रसन्न होकर देवी ने प्रकट होकर देवताओं को इच्छित वर मांगने को कहा था। इस प्रकार इस कलयुग में भी देवी की इस अध्याय में दिये मंत्रों की स्तुति से भक्तों की सभी मनोकामनायें पूर्ण हो जाती हैं। देवी की स्तुति करते हुए इन मंत्रों के उच्चारण से कोरोना महामारी से भी छुटकारा मिल सकता है।
यह कहना है योगिक मानसिक चिकित्सा सेवा समिति की संचालिका, समाज सेविका व प्राणिक हीलर ऊषा त्रिपाठी का। ऊषा त्रिपाठी का कहना है कि कोरोना काल में सरकार द्वारा जिस प्रकार दो गज की दूरी, मास्क और सेनिटाइजर के प्रयोग जैसे प्रोटोकाल का पालन तो करें ही, साथ ही इस अध्याय में दिये मंत्रों से माता की आराधना करें। ऊषा त्रिपाठी का कहना है कि जिस प्रकार इन मंत्रों को सुनकर दुर्गा मां ने देवताओं को इच्छित वरदान दिया था, उसी प्रकार इन मंत्रों का पाठ मनुष्यों के भी दु:ख दूर करने वाला है। मंत्रों के प्रसंग को बताते हुए ऊषा त्रिपाठी ने कहा कि दुर्गा सप्तशती के 11वें अध्याय में कहा गया है कि महर्षि मेघा कहते है- दैत्य के मारे जाने पर इन्द्रादि देवता अग्नि को आगे करके कात्यायनी देवी की स्तुति करने लगे, उस समय अभीष्ट की प्राप्ति के कारन उनके मुख खिले हुए थे। देवताओं ने मंत्रों के उच्चारण से देवी से प्रसन्न होने की प्रार्थना करते हुए विश्व की रक्षा करने की प्रार्थना की। देवताओं ने देवी को विभिन्न रूपों में विद्यमान बताते हुए बार-बार उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया।
इस पर देवी ने कहा- हे देवताओं ! मैं तुमको वर देने के लिए तैयार हूँ । आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा वर मांग लो मैं तुमको दूंगी। देवताओं ने कहा- हे सर्वेश्वरी! त्रिलोकी की निवासियों की समस्त पीड़ाओं को तुम इसी प्रकार हराती रहो और हमारे शत्रुओं को इसी प्रकार नष्ट करती रहो। देवी ने कहा- वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में दो और महा- असुर शुम्भ और निशुम्भ उत्पन्न होंगे। उस समय मैं नन्द गोप के घर से यशोदा के गर्भ उत्पन्न होकर विन्ध्याचल पर्वत पर शुम्भ और निशुम्भ का संहार करूगीं, फिर अत्यंत भंयकर रूप से पृथ्वी पर अवतीर्ण वैप्रचिति नामक दानवों का नाश करुँगी।
उन भयंकर महा असुरों का भक्षण करते समय मेरे दन्त अनार के पुष के समान लाल होगें, इसके पश्चात स्वर्ग में देवता और पृथ्वी पर मनुष्य मेरी स्तुति करते हुए मुझे रक्तदंतिका कहेंगे, फिर जब सौ वर्षों तक वर्षा न होगी तो मैं ऋषियों के स्तुति करने पर आयोनिज नाम से प्रकट होउंगी और अपने सौ नेत्रों से ऋषियों की ओर देखूंगी । अतः मनुष्य शताक्षी नाम से मेरा कीर्तन करेंगे। उसी समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न हुए, प्राणों की रक्षा करने वाले शकों द्वारा सब प्राणियों का पालन करूंंगी और तब इस पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से विख्यात होउंगी और इसी अवतार में मैं दुर्गा नामक महा असुर का वध करूंंगी, और इससे मैं दुर्गा देवी के नाम से प्रसिद्ध होउंगी। इसके पश्चात जब मैं भयानक रूप धारण करके हिमालय निवासी ऋषियों महाऋषियों की रक्षा करूंंगी, तब भीम देवी के नाम से मेरी ख्यति होगी और जब फिर अरुण नमक असुर तीनों लोकों को पीड़ित करेगा, तब मैं असंख्य भ्रमरों का रूप धारण करके उस महादैत्य का वध करूंगी, तब स्वर्ग में देवता और मृत्यु लोक में मनुष्य मेरी स्तुति करते हुए मुझे भ्रामरी नाम से पुकारेंगे। इस प्रकार जब-जब पृथ्वी राक्षसों से पीड़ित होगी, तब-तब मैं अवतरित होकर शत्रुओं का नाश करूंंगी।
ग्यारहवां अध्याय