-विश्व रूमेटॉयड अर्थराइटिस जागरूकता दिवस (2 फरवरी) पर डॉ गिरीश गुप्ता से विशेष वार्ता
सेहत टाइम्स
लखनऊ। रूमेटॉयड अर्थराइटिस ऑटो इम्यून डिजीज है यानी इसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता अपने ही खिलाफ काम करने लगती है। यह जोड़ों से सम्बन्धित अत्यन्त जटिल एवं गम्भीर बीमारी है जिसमें शरीर के सारे जोड़ों में सूजन आ जाती है, उनमें भारीपन सा लगने लगता है साथ ही दर्द भी प्रारम्भ हो जाता है। अंगुलियों में टेढ़ापन आ जाता है और अंतत: उंगलिया काम करने लायक नहीं रहती हैं। इसके कारणों के बारे में स्टडी बताती है कि रुमेटॉइड एक गैर-अंग विशिष्ट ऑटोइम्यून प्रणालीगत विकार है जो अन्य कारणों के अलावा मनोवैज्ञानिक गड़बड़ी और भावनात्मक तनाव से भी शुरू हो सकता है।
यह जानकारी यहां राजधानी लखनऊ स्थित गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च के चीफ कन्सल्टेंट डॉ गिरीश गुप्ता ने विश्व रूमेटॉयड अर्थराइटिस जागरूकता दिवस (2 फरवरी) के मौके पर ‘सेहत टाइम्स’ से विशेष वार्ता में दी। उन्होंने बताया कि रूमेटॉयड अर्थराइटिस अस्थियों से संबंधित एक प्रमुख रोग है जिसे संधिवात भी कहते हैं इसमें जोड़ों में सूजन तथा दर्द होता है। शरीर में जिस स्थान पर दो या दो से अधिक अस्थि (बोन) और उपास्थि (कार्टिलेज) मिलती है उसे संधि जोड़ कहते हैं जो शरीर को गति प्रदान करते हैं। संधियों के बीच उपस्थित झिल्लियों के कारण जोड़ों का परस्पर रगड़ने तथा घिसने से बचाव होता है।
उन्होंने बताया कि आमतौर पर रोगी दर्द होने पर इस समस्या को गंभीरता से नहीं लेते हैं तथा उचित चिकित्सा के स्थान पर क्षणिक लाभ के लिए दर्द निवारक दवाएं लेते रहते हैं इन दर्द निवारक दवाओं से कुछ देर के लिए राहत अवश्य मिल जाती है लेकिन इससे उनके संपूर्ण शरीर पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ता है तथा यह अंदर ही अंदर गंभीर रूप में तब्दील होकर तीव्र दर्द एवं शारीरिक विकृतियों के रूप में सामने आता है। दर्दनिवारक दवाओं का दीर्घकालिक उपयोग आरंभ में पेट में दर्द, उल्टी, भूख ना लगना जैसे लक्षणों तथा बाद में आमाशय के अल्सर (गैस्ट्रिक अल्सर) के रूप में सामने आता है। यदि रोगी फिर भी उचित चिकित्सा के स्थान पर दर्द निवारक दवाओं का सेवन करता रहे तो गुर्दे लिवर एवं अन्य महत्वपूर्ण अंगों की गंभीर एवं अपूरणीय क्षति हो सकती है तथा रोगी मात्र दर्द से निजात पाने के चक्कर में और अधिक गंभीर एवं जानलेवा बीमारियों के चंगुल में फंस जाता है।
डॉ गुप्ता ने बताया कि इस बीमारी को डायग्नोज करने के लिए रक्त परीक्षण में आर ए फैक्टर तथा सीआरपी टेस्ट होता है अगर यह धनात्मक पाया जाता है तो यह इस बीमारी की पुष्टि करता है। उन्होंने बताया कि होम्योपैथिक में इसका पूरी तरह से सफल इलाज संभव है, इसमें मरीज की हिस्ट्री लेकर इसके मानसिक कारण तलाशने होते हैं। उन्होंने बताया कि रूमेटॉयड अर्थराइटिस के इलाज में होलिस्टिक अप्रोच यानी शारीरिक और मन:स्थिति से सम्बन्धित कारणों के बारे में जानकर मरीज की हिस्ट्री ली जाती है। इसके बाद इस पूरी हिस्ट्री को ध्यान में रखकर बड़ी संख्या में उपलब्ध दवाओं में से मरीज विशेष के सभी लक्षणों के अनुरूप दवा का चुनाव किया जाता है। डॉ गिरीश ने बताया कि रोगी को प्रारंभिक अवस्था में ही दर्द निवारक दवाओं का सहारा न लेकर किसी कुशल होम्योपैथिक चिकित्सक से इलाज करवाना चाहिए क्योंकि जब यह रोग बढ़कर शारीरिक विकृतियों के रूप में सामने आता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। उन्होंने कहा कि हालांकि अर्थराइटिस को इस अवस्था में भी होम्योपैथिक चिकित्सा द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है परंतु विकृति को पूरी तरह सही नहीं किया जा सकता है।
11 वर्ष पूर्व हो चुका है शोध का प्रकाशन
डॉ गुप्ता ने कहा कि उनके गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च (जीसीसीएचआर) लखनऊ में अब तक सैकड़ों मरीजों का इलाज किया गया है। इससे सम्बन्धित एशियन जर्नल ऑफ होम्योपैथी के फरवरी-अप्रैल 2014 के अंक में प्रकाशित अपने शोध के बारे में उन्होंने बताया कि नवंबर 1996 से जुलाई 2013 तक गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च (जीसीसीएचआर) लखनऊ में उपस्थित हुए कुल 250 आर. ए. फैक्टर पॉजिटिव रोगियों को डेटा के विश्लेषण और होम्योपैथिक दवाओं की प्रतिक्रिया के लिए चुना गया था।
रोगी के रूमेटॉयड अर्थराइटिस के निदान की पुष्टि करने और उपचार के 3 महीने बाद आमतौर पर प्रतिक्रिया का आकलन करने के लिए प्रत्येक मामले में आर. ए. फैक्टर का परीक्षण किया गया। अध्ययन में 20 IU/ml या 24 mg/dl से अधिक वाले मामले शामिल किए गए। प्रत्येक मामले का स्वतंत्र रूप से अध्ययन किया गया था और अनुवर्ती मूल्यांकन रुमेटॉयड फैक्टर में कमी पर आधारित था। यह समग्र उपचार के माध्यम से रुमेटॉयड फैक्टर पॉजिटिव मामलों के उपचार में होम्योपैथिक दवाओं की भूमिका को प्रदर्शित करने का एक प्रारंभिक प्रयास था।
उन्होंने इस स्टडी के परिणामों के बारे में बताया कि कुल 250 मामलों में से, 98 (39.20%) में आर. ए. फैक्टर निगेटिव यानी नकारात्मक हो गया, 72 (28.80%) में आर. ए. फैक्टर कम हो गया, 62 (24.80%) में यथास्थिति बनी रही और 18 (7.20%) मामलों में आर. ए. फैक्टर में वृद्धि हुई। उपचार की अवधि मामले दर मामले अलग-अलग थी और अधिकांश मामलों में लक्षणों में महत्वपूर्ण सुधार हुआ। दूसरे अर्थों में समझें तो 250 में से 98 लोग पूरी तरह से ठीक हो गये वहीं 134 मरीजों में बीमारी कम हो गयी या उनकी स्थिति वैसी ही रही (बीमारी बढ़ी भी नहीं) अर्थात 232 लोगों को पूरा या आंशिक लाभ हुआ।