ऑटिज्म के उपचार में ‘एसीबीआर’ की रिसर्च मील का पत्थर
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ आशीष अग्रवाल से विशेष बातचीत

लखनऊ। न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर के चलते सेरेब्रल पाल्सी (सीपी) की समस्या तो पुरानी है लेकिन ऑटिज्म से पीड़ित बच्चों की आमद हाल के वर्षों में बढ़ गयी है, अफसोस की बात यह है कि जागरूकता के अभाव में ऑटिज्म के लक्षणों को शुरुआत में बीमारी न मानकर अभिभावक ऐसे बच्चे को डॉक्टर के पास लाने में बहुत देर कर देते हैं, और फिर देर से लाने का नतीजा यह होता है कि बच्चे को विशेष लाभ नहीं मिल पाता है। उचित तो यह है कि दो वर्ष तक की उम्र तक अगर ऑटिज्म से पीड़ित बच्चे को डॉक्टर के पास ले आया जाये तो यह सर्वोत्तम स्थिति है, इस स्थिति में इलाज अत्यन्त कारगर है, वरना इसके बाद लाभ का प्रतिशत घटता जाता है और चार-पांच साल की उम्र के बाद इस रोग को ठीक करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
‘सेहत टाइम्स’ से विशेष बातचीत में यह बात गोरखपुर में निजी क्लीनिक चलाने वाले बाल रोग विशेषज्ञ डॉ आशीष अग्रवाल ने कही। गोरखपुर में जन्मे तथा देहरादून से एमबीबीएस व लखनऊ के एराज मेडिकल कॉलेज से एमडी करने वाले डॉ आशीष अग्रवाल एसोसिएशन ऑफ चाइल्ड ब्रेन रिसर्च (एसीबीआर) द्वारा किये जा रहे ऐसे बच्चों के इलाज करने के ढंग से बहुत प्रभावित भी हैं और आशान्वित भी। उनका कहना है कि लंदन में रहकर लम्बी रिसर्च करने के बाद इलाज खोजने वाले एसीबीआर के संस्थापक डॉ राहुल भारत ने जिस सोच और गंभीरता के साथ इस उपचार को इंडिया के बाल रोग विशेषज्ञों तक पहुंचा कर उन्हें ‘ब्रेन रक्षक’ बनाने का बीड़ा उठाया है, वह अत्यन्त सराहनीय है। ऑटिज्म बीमारी, जिसके बारे में माता-पिता जानते भी नहीं हैं, इसमें डॉ राहुल के इलाज का रिजल्ट काफी अच्छा है क्योंकि डॉ राहुल लंदन जैसी एप्रोच के अनुसार इलाज का कॉन्सेप्ट लेकर आये हैं ताकि रिजल्ट भी लंदन की तरह अच्छे मिलें।

उन्होंने कहा कि मुझे लगता है कि अगर माता-पिता बच्चे की दिक्कत को समय पर पहचान कर डॉक्टर के पास पहुंचने को लेकर जागरूक हुऐ व डॉ राहुल की रिसर्च के अनुसार इलाज हुआ तो कोई वजह नहीं है कि इस बीमारी पर काबू न पाया जा सके। डॉ आशीष बताते हैं कि दरअसल होता यह है कि शुरुआत में अगर बच्चा नहीं बोल रहा है या नहीं चल रहा है तो अक्सर घर में कहा जाता है कि कोई बात नहीं, बच्चे के पिता भी तथा दादा भी देर से बोले थे, देर से चले थे, यानी इस समस्या को सामान्य मानकर छोड़ देते हैं। लेकिन जब बाद में बच्चे की ये दिक्कतें उसके विकास में बाधक बनती हैं तो उन्हें समझ में आता है कि यह दिक्कत तो गंभीर है, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है, और जो फायदा बच्चे को जल्दी इलाज पर मिल सकता था, वह नहीं मिल पाता है।
डॉ राहुल भारत के द्वारा तैयार किये गये इस इलाज पर इतना विश्वास की वजह पूछने पर डॉ आशीष का कहना था कि मैं डॉ राहुल से करीब ढाई साल पहले मिला था, डॉक्टर्स ग्रुप में शामिल होने के कारण डॉ राहुल की उपलब्धियों की जानकारी होती रहती थी, उससे मैं प्रभावित हुआ था, इसके बाद उनकी एक कॉन्फ्रेंस में पहली बार उनसे मिला तो उनके बारे में और उनकी रिसर्च को जानने का मौका मिला जिससे मैं और भी प्रभावित हुआ। उन्होंने कहा कि डॉ राहुल ने यूके में रहकर पढ़ाई की है और वह वहां किये जाने वाले इलाज के तरीके की गंभीरता को अच्छे से समझते हैं। उन्होंने कहा कि भारत और इंग्लैंड में इलाज करने की संस्कृति में बहुत फर्क है, इस तरह की बीमारी में वहां पर चिकित्सक मरीज को जितनी जरूरत होती है उतना समय देते हैं, जबकि भारत में ऐसा नहीं है, इस दिशा में यहां बहुत काम किये जाने की जरूरत है। यहां आमतौर पर चिकित्सक मरीज को बहुत समय देना ही नहीं चाहते हैं, साफगोई से अगर कहूं तो उनके अंदर भी जागरूकता की कमी है। डॉ राहुल ने इसकी गंभीरता को समझा है और वही संस्कृति भारत में भी लागू करना चाहते हैं। मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इसकी झलक उनके द्वारा तैयार किये गये कोर्स और उससे मिले परिणाम में दिखती है। डॉ आशीष का मानना है कि इस क्षेत्र में जागरूकता के प्रति सरकार को भी अपना योगदान देना चाहिये, सरकार के भी शामिल रहने से डॉ राहुल के प्रयासों को और बल मिलेगा और लोगों का देश के नौनिहालों के लिए आवश्यक इलाज के प्रति विश्वास भी पुख्ता होगा।
ज्ञात हो कि डॉ राहुल भारत ने पीडियाट्रिक न्यूरोलॉजी की पढ़ाई कैंब्रिज यूके से की है। वह ब्रिटिश पीडियाट्रिक न्यूरोलॉजी एसोसिएशन के सदस्य और पीडियाट्रिक एपिलेप्सी ट्रेनिंग के ट्रेनर हैं। इसके अलावा डॉ राहुल इंटरनेशनल चाइल्ड न्यूरोलॉजी एसोसिएशन और रॉयल कॉलेज एंड पीडियाट्रिक्स एंड चाइल्ड हेल्थ लंदन के सदस्य भी हैं।

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