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टीकाकरण के समय बच्चे के मल-मूत्र का नमूना लाना अनिवार्य किये जाने की सिफारिश

-छोटे बच्चे की ज्वाइंडिस को समय रहते पकड़ने के लिए सुझाव दिया विशेषज्ञों ने

-नेशनल मिड-टर्म IspGHancon 2025 के मौके पर जुटे देश के बड़े संस्थानों के विशेषज्ञ

सेहत टाइम्स

लखनऊ। राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के तहत शिशु के टीकाकरण के ​लिए आने के समय यदि बच्चे की पेशाब और पाखाना का नमूना लाना अनिवार्य कर दिया जाये तो पेशाब और मल के रंग को देखकर यह पता लगाना आसान हो जायेगा कि बच्चेे को ज्वाइंडिस की शिकायत तो नहीं है। इस प्रकार से नवजात शिशु और कम उम्र के बच्चों में ज्वॉइंडिस की बीमारी को जल्दी पकड़ पाना संभव हो सकेगा, जिससे लिवर को डैमेज होने से बचाया जा सकेगा।

यह सलाह रविवार 27 अप्रैल को डॉ राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान आरएमएलआई में नेशनल मिड-टर्म IspGHancon 2025 के मौके पर जुटे देशभर के विशेषज्ञों ने अपनी चर्चा के दौरान दी। इस बारे में जानकारी देते हुए कार्यक्रम के आयोजन सचिव लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के प्रो डॉ पीयूष उपाध्याय ने बताया कि सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ यह कार्यक्रम भारत में पीडियाट्रिक हेपेटोलॉजी और पोषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। उनहोंने बताया कि भारतीय पीडियाट्रिक गैस्ट्रोएंटरोलॉजी, हेपेटोलॉजी और न्यूट्रिशन सोसाइटी (ISPGHAN) के संरक्षण में आयोजित इस सम्मेलन में देश भर से आए 300 से अधिक प्रतिभागियों ने भाग लिया, जिनमें प्रतिष्ठित पीडियाट्रिक गैस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट और हेपेटोलॉजिस्ट, वयस्क गैस्ट्रोएंटरोलॉजिस्ट, पीडियाट्रिशियन और नियोनेटोलॉजिस्ट शामिल थे।

कार्यक्रम के बारे में विस्तार से बताते हुए डॉ उपाध्याय ने कहा कि इस वर्ष के सम्मेलन का विषय —”नवजात और शिशु कोलेस्टेसिस: नवीन प्रगति” — पीडियाट्रिक हेपेटोलॉजी के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र पर केंद्रित था, जिसमें प्रारंभिक निदान, उपचार संबंधी दुविधाओं और दीर्घकालिक प्रबंधन रणनीतियों में नवीनतम प्रगति पर विचार-विमर्श किया गया।

उन्होंने बताया कि नवजात और कम उम्र के बच्चों में लिवर खराब होने की वजह से होने वाली ज्वॉइंडिस की अक्सर समय से पहचान नहीं हो पाती है, और जब पहचान हो पाती है तो बहुत देर हो चुकी होती है, उस समय उसे ठीक करने के लिए लिवर का कोई उपचार नहीं हो सकता है, सिर्फ लिवर ट्रांसप्लांट ही एक रास्ता बचता है। चूंकि लिवर ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया बहुत खर्चीली होने के साथ ही लिवर की उपलब्धता आसान नहीं होती है, नतीजा यह होता है कि बड़ी संख्या में बच्चों की मृत्यु हो जाती है, और इसके आंकड़े तक सामने नहीं आ पाते हैं।

उन्होंने कहा कि इसके कारणों की बात करें तो 50 प्रतिशत केस में पैदाइशी रूप से पित्त की नली का ढंग से न बनना है। सामान्य प्रक्रिया में लिवर में बनने वाला पित्त लिवर से पित्त की नली में जाता है जहां से वह आंतों में जाता है, इसीलिए मल का रंग पीला होता है। इसके विपरीत जब पैदाइशी रूप से पित्त की नली का निर्माण ठीक से नहीं हो पाता है तो ऐसे में जो पित्त बनता है वह नली में आ नहीं पाता है, और वह लिवर में ही इकट्ठा होता रहता है। यही लिवर के खराब होने का कारण बनता है। इसी समस्या के समाधान की दिशा में कार्यक्रम में हुई चर्चा में कहा गया कि एक बहुत ही आसान पहचान है बच्चे के मल और मूत्र का आकलन करना। चूंकि आंतों में पित्त नहीं आ पाता है ऐसे में बच्चे के मल का कलर कुछ सफेदी लिये होता है, और पेशाब गाढ़ी पीली होती है। उन्होंने बताया कि इसकी आसानी से पहचान के लिए यह देखें कि बच्चे की नैप​किन में पेशाब का पीला पन नैपकिन धोने के बाद भी न जाये और मल का कलर सफेदी लिये हुए हो या उसमें पीलापन कम हो तो यह संकेत ज्वाइंडिस होने के हो सकते हैं। मल और मूत्र की जांच समय से हो सके, इसीलिए टीकाकरण के समय इसके नमूने लाने का सुझाव दिया गया है।

डॉ. उपाध्याय ने बताया कि कार्यक्रम के मुख्य अतिथि संस्थान के निदेशक प्रो. (डॉ.) सी.एम. सिंह, तथा विशिष्ट अतिथि अध्यक्ष ISPGHAN, प्रो. (डॉ.) सीमा आलम थीं। अपने उद्घाटन भाषण में प्रो.(डॉ.) सीएम सिंह ने लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान की परिवर्तनकारी यात्रा, विशेषकर पीडियाट्रिक गैस्ट्रोएंटरोलॉजी और हेपेटोलॉजी डिवीजन के विकास पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि लोहिया इंस्टीट्यूट में हमारी उत्कृष्टता के प्रति प्रतिबद्धता केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि प्रदान की जाने वाली समग्र देखभाल की गुणवत्ता में भी झलकती है। पिछले एक वर्ष में, हमने 1000 से अधिक पीडियाट्रिक एंडोस्कोपी, प्रतिदिन 100 से अधिक बच्चों की ओपीडी उपस्थिति, और 1200 से अधिक जटिल पीडियाट्रिक लिवर और जठरांत्र मामलों को सफलतापूर्वक प्रबंधित किया है। आज यह संस्थान न केवल उत्तर प्रदेश, बल्कि आस-पास के राज्यों के लिए भी एक प्रमुख रेफरल केंद्र बन गया है। इस प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सम्मेलन की मेजबानी करना हमारे नैदानिक उत्कृष्टता, अकादमिक कठोरता और अनुसंधान नवाचार के समन्वय के दृष्टिकोण के अनुकूल है।

डॉ उपाध्याय ने बताया कि कार्यक्रम में प्रमुख संस्थानों जैसे कि ILBS नई दिल्ली, SGPGI लखनऊ, KGMU लखनऊ, MGM हॉस्पिटल और रेनबो हॉस्पिटल चेन्नई, स्टेनली मेडिकल कॉलेज चेन्नई, SSKM कोलकाता, IMS एंड SUM भुवनेश्वर, मैक्स नानावटी मुंबई, और इम्पीरियल हॉस्पिटल जयपुर के 85 विशिष्ट फैकल्टी सदस्यों ने अपने विशेषज्ञ विचारों और अनुभव से वैज्ञानिक सत्रों को समृद्ध किया।

सम्मेलन समिति की ओर से डॉ. पीयूष उपाध्याय, आयोजन सचिव ने मुख्य अतिथि एवं विशिष्ट अतिथि का विशेष रूप से आभार व्यक्त किया, जिनकी उपस्थिति ने इस अकादमिक आयोजन को अत्यंत गौरवपूर्ण बनाया। इसके अलावा उन्होंने सभी भागीदार संस्थानों, फैकल्टी सदस्यों, प्रतिभागियों और प्रायोजकों का हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए कहा, कि देश भर के प्रतिष्ठित संस्थानों से आए इतने eminent विशेषज्ञों का स्वागत करना हमारे लिए सम्मान की बात थी। उनके सक्रिय योगदान और उत्साही सहभागिता ने इस सम्मेलन को एक शानदार शैक्षणिक सफलता में बदल दिया। आज की गईं विविध चर्चाएं और सहयोग की भावना हमारे देश में पीडियाट्रिक लिवर स्वास्थ्य और पोषण सेवा को आगे बढ़ाने के हमारे साझा संकल्प को दर्शाती हैं।

डॉ. दीप्ति अग्रवाल, आयोजन अध्यक्ष, और डॉ. संजीव कुमार वर्मा, सह-आयोजन सचिव, ने भी सभी विशिष्ट फैकल्टी सदस्यों और प्रतिभागियों का सम्मेलन को सफल बनाने में दिए गए उत्साहपूर्ण योगदान के लिए विशेष आभार व्यक्त किया।

सम्मेलन के वैज्ञानिक कार्यक्रम में मुख्य व्याख्यान, बहुविषयक पैनल चर्चाएं, जटिल नैदानिक मामलों की प्रस्तुति और एक व्यावहारिक “हैंड्स-ऑनएंडोस्कोपी” सत्र शामिल था, जिसने प्रतिभागियों को विशेषज्ञ पर्यवेक्षण में पीडियाट्रिकएंडोस्कोपिक तकनीकों का प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान किया।

यह सम्मेलन वरिष्ठ फैकल्टी और युवा चिकित्सकों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने, विचारों के आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करने और भारत में पीडियाट्रिक गैस्ट्रोएंटरोलॉजी और हेपेटोलॉजी में भविष्य के नवाचारों की नींव रखने के लिए एक उत्कृष्ट मंच सिद्ध हुआ।

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