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पूर्ण रूप से साकार होनी जरूरी है विश्‍व मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य दिवस की परिकल्‍पना

-मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य में मस्तिष्‍क से जुड़ी बीमारियां ही नहीं, स्‍वस्‍थ मानसिकता भी शामिल : डॉ गिरीश गुप्ता

धर्मेन्‍द्र सक्‍सेना

खनऊ। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की व्‍यक्ति के स्‍वस्‍थ होने की परिभाषा के अनुसार मानसिक रूप से स्‍वस्‍थ होने का अर्थ बहुत व्‍यापक है, क्‍योंकि हमारे द्वारा किये जाने वाले सभी कार्य हमारे मस्तिष्‍क से ही जुड़े हैं, इसलिए अगर कोई व्‍यक्ति समाज विरोधी, धर्म विरोधी कार्य कर रहा है तो भी वह मानसिक रूप से बीमार है। इस तरह की बीमार मानसिकता का इलाज अच्‍छे संस्‍कारों के ज्ञान से, उनको आत्‍मसात करने से ही होगा। जहां तक डिप्रेशन, घबराहट, उलझन, किसी घटना से मानसिक आघात, धोखा, आर्थिक नुकसान के चलते होने वाली शारीरिक व्‍याधियों की बात है तो यह मानसिक बीमारियों की एक छोटी सी श्रेणी कही जा सकती है, और इसका इलाज होम्‍योपैथिक दवाओं से पूरी तरह सम्‍भव है, क्‍योंकि होम्‍योपैथी की थ्‍यौरी में इलाज रोग का नहीं बल्कि रोगी का किया जाता है, और पूरे शरीर और मस्तिष्‍क को एक मानकर शारीरिक और मानसिक लक्षणों, कारणों को ध्‍यान में रखकर दवा का चुनाव किया जाता है।

डॉ गिरीश गुप्ता

यह बात राजधानी लखनऊ स्थित गौरांग क्‍लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्‍योपैथिक रिसर्च के संस्‍थापक होम्‍योपैथिक विशेषज्ञ डॉ गिरीश गुप्ता ने विश्‍व मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य दिवस के अवसर पर ‘सेहत टाइम्‍स’ से विशेष वार्ता में कही। डॉ गुप्ता ने कहा कि आज विश्‍व मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य दिवस है, इसलिए सिर्फ किसी बीमारी पर नहीं बल्कि सम्‍पूर्ण मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति जागरूकता की बात करनी होगी।

उन्‍होंने कहा कि स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति की परिभाषा में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक दृष्टिकोण जैसे बिंदु बाद में जुड़ते गये हैं। उन्‍होंने बताया कि शुरू में विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन का मानना था कि Absence of disease is health यानी जो व्‍यक्ति शारीरिक रूप से बीमार नहीं है, वह स्‍वस्‍थ है, बाद में देखा गया कि व्‍यक्ति शारीरिक रूप से तो ठीक हैं लेकिन मा‍नसिक रूप से स्‍टेबिल नहीं है, चिड़चिड़ाता है, गाली-गलौज करता है, मारपीट करता है, लोगों को छेड़ता है तो ऐसे व्‍यक्ति को भी स्‍वस्‍थ नहीं माना जा सकता है, तो नयी परिभाषा में कहा गया कि Physical and mental well being is health यानी व्‍यक्ति अगर शारीरिक और मानसिक रूप से स्‍वस्‍थ है तभी उसे स्‍वस्‍थ कहा जा सकता है। डॉ गुप्‍त ने बताया कि बाद में देखा गया कि व्‍यक्ति शारीरिक रूप से स्‍वस्‍थ है, मानसिक रूप से भी ठीक है, कोई असामान्‍य एक्टिविटी नहीं करता है, लेकिन वह सामाजिक दृष्टिकोण से गड़बड़ है यानी समाज में वैमनस्‍यता फैलाता है, लड़ाई-झगड़ा करता है, गाली-गलौज करता है, अपनी भाषा से दूसरे को दुखी करता है, समाज विरोधी कार्य करता है तो इस स्‍वास्‍थ्‍य की परिभाषा में सा‍माजिक शब्‍द जोड़ते हुए बनाया गया Physical, mental and social well being is health यानी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से स्वस्थ होना ही स्‍वास्‍थ्‍य है। डॉ गुप्‍त बताते हैं कि इसके बाद यह देखा गया कि व्‍यक्ति शारीरिक, मानसिक, सामाजिक दृष्टि से तो स्‍वस्‍थ दिखता है लेकिन वह धर्म का सम्‍मान नहीं करता है, दूसरे धर्म को खराब कहता है, दूसरे धर्म की निंदा करता है, तो भी ऐसे व्‍यक्ति को स्‍वस्‍थ कैसे कहा जा सकता है। इसलिए अंतिम रूप से जो स्‍वास्‍थ्‍य की परिभाषा बनी वह है Physical, mental, social and religious well being is health यानी कि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से स्‍वस्‍थ होने पर ही व्‍यक्ति स्‍वस्‍थ माना जायेगा। व्‍यक्ति शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से स्‍वस्‍थ हों, समाज में लोगों के बीच बैठें तो बुराई न करें, ऐसी बात न कहें जो किसी को बुरा लगे, जातीय फसाद, धार्मिक फसाद न हो, सर्व धर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्‍बकम  की भावना रखने वाला व्‍यक्ति ही पूर्ण स्‍वस्‍थ माना जायेगा। कुल मिला कर कह सकते हैं कि मौजूदा समय में विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की स्‍वास्‍थ्‍य की परिभाषा के अनुसार आप कम्‍फर्टेबुल हों, और साथ ही आपकी वजह से दूसरे भी डिस्कम्‍फर्टेबुल न हों, तभी आप स्‍वस्‍थ माने जायेंगे।

एक सवाल के जवाब में डॉ गिरीश गुप्‍ता ने बताया कि डिप्रेशन की वजह सामाजिक है, शारीरिक या मानसिक नहीं है, उन्‍होंने कहा कि अगर व्‍यक्ति कमाई करके अपनी मूल आवश्‍यकताओं की पूर्ति कर रहा है तो उसके अंदर संतुष्टि के भाव होने चाहिये, लेकिन आमतौर पर देखा यह जाता है कि व्‍यक्ति की लालसा बढ़ती रहती है, महत्‍वाकांक्षायें बढ़ती रहती हैं। इसी प्रकार समाज में ऐसे बहुत से व्‍यक्ति हैं जिनके दुख का कारण सिर्फ यह है कि दूसरे व्‍यक्ति खुश क्‍यों हैं, जबकि हमारी संस्‍कृति भी हमें यह सिखाती है कि वसुधैव कुटुम्‍बकम यानी पूरा विश्‍व हमारा परिवार है, हमें सबका ध्‍यान रखना है। इसीलिए कबीरदास ने भी अपने दोहे में लिखा है कि …जब आये संतोष धन, सब धन धूरि समान… यानी सबसे बड़ा धन मन में संतोष रखना है।  डॉ गुप्‍त कहते है बदलते माहौल में संतोष धन खत्‍म होता जा रहा है। धैर्य खत्‍म हो रहा है, महत्‍वाकांक्षा बढ़ी है, ईर्ष्‍या बढ़ रही है। इसीलिए ऐसे व्‍यक्ति विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति की होने की परिभाषा में फि‍ट नहीं हो रहे हैं।

उन्‍होंने कहा कि व्‍यक्ति अगर ईर्ष्‍या पर काबू करेंगे तो गुस्‍सा भी कम आयेगा। गुस्‍सा कम होगा तो नुकसान भी कम होगा क्‍योंकि जब गुस्‍सा आता है तो हमारे शरीर में केमिकल निकलते हैं, गुस्‍सा आने पर दो बातें होती हैं, या तो व्‍यक्ति गुस्‍सा सामने वाले व्‍यक्ति पर निकाल लेता है या गुस्‍से को अपने अंदर दबा लेता है, निकाल लेंगे तो दूसरे का नुकसान करेंगे और नहीं निकालेंगे तो अपना नुकसान करेंगे। यह साइकोसोमेटिक डिजीज कहलाती है जो शरीर में रिलीज हुए केमिकल्‍स हार्ट, लंग्‍स किडनी में विकार पैदा करती हैं, उन्‍होंने कहा कि When your eyes do not weep, your internal organs starts weeping. यानी जब व्‍यक्ति दुखी हो, अपना दुख बर्दाश्‍त करता है, और उनकी आंखों से आंसू भी न निकलें तो समझ लीजिये अंदरूनी अंगों हार्ट, किडनी, लंग्‍स आदि पर नुकसान होना तय है।

डॉ गिरीश गुप्ता बताते हैं कि अब तो दुनिया मान रही है कि सोशल वर्क करने से मानसिक शांति और संतुष्टि मिलती है। अपने देश में तो लोग पहले जरूरतमंद की मदद कर दान देते थे, पेड़ लगाते थे, धर्मशाला, सराय बनायीं जिससे मुसाफि‍रों को कष्‍ट न हो, अब आज के इस युग में इन चीजों का अभाव पाया जाता है, ये सब कहीं न कहीं मानसिक बीमारियों को जन्‍म देते हैं।

उन्‍होंने कहा कि हमारा मस्तिष्‍क कितना सेंसटिव और एक्टिव रहता है इसका अंदाज इसी‍ से लगाया जा सकता है कि यदि हमारे शरीर में एक छोटी सी सुई की नोक भी चुभती है तो हमें तुरंत अहसास हो जाता है, कहीं खुजली होती है तो तुरंत ही हमारा मस्तिष्‍क हाथ को सिगनल देता है और हमारा हाथ उसी स्‍पॉट पर पहुंचता है, और खुजली मिटा देता है यानी ब्रेन से निकलने वाले सिगनल बहुत शार्प हैं। यहां तात्‍पर्य यह है कि अगर मस्तिष्‍क समाज विरोधी, धर्म विरोधी, नकारात्‍मक, दूसरों को पीड़ा पहुंचाने वाली सोच रखेगा तो उसका भी असर शरीर पर पड़ेगा।

डॉ गिरीश गुप्ता ने कहा कि विश्‍व मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य दिवस पर मेरी यही अपील है कि मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य के सभी पहलुओं पर ध्‍यान रखकर जब हम अपने अंदर संतुष्टि के भाव रखेंगे, अपनी हैसियत के अनुसार अपनी जरूरतों को बढ़ायेंगे, ईर्ष्‍या से दूर रहेंगे, अतिमहत्‍वाकांक्षी नहीं बनेंगे, समाज को तोड़ने की नहीं बल्कि जोड़ने की बात करेंगे, एक-दूसरे के धर्मों का आदर करेंगे, तभी सही अर्थों में मानसिक रूप से स्‍वस्‍थ होंगे और तभी विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के इस दिन की परिकल्‍पना भी सार्थक होगी।