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वर्षा की रिमझिम लड़ि‍यों के बीच में…

दिल को छूते शब्‍दों से गुंथी काव्‍यमाला-2          

अल्का निगम

कहते हैं कि जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि, शब्‍दों का मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य पर भी गहरा असर होता है। शब्‍दों में इतनी ताकत होती है कि उनसे दिल में घाव बन भी सकता है और घाव भर भी सकता है, बस यह निर्भर इस पर करता है कि शब्‍दों से नश्‍तर बनाया है या मरहम। जीवन की आपाधापी, दौड़-भाग, मूड पर सीधा असर डालने वाले समाचारों से बोझिल होते मस्तिष्‍क को सुकून देने की एक कोशिश ‘सेहत टाइम्‍स’ प्रेरक कहानियों को प्रकाशित करके पहले ही शुरू कर चुका है, अब पाठकों के लिए दिल को छू लेने वाली काव्‍य रचनायें प्रस्‍तुत हैं। लखनऊ की कवयित्री अल्का निगम ने अनेक विषयों पर अपनी कलम चलायी है, उनके काव्‍य संग्रह लफ्जों की पोटली की दो और रचनाएं प्रस्‍तुत हैं…   

वर्षा की रिमझिम लड़ि‍यों के बीच में

वर्षा की रिमझिम लड़ियों के बीच में

तन पे शुभ्रता लपेटे

हरीतिमा के झूले में झूलता

एक मोगरा दिखा मुझे।

बिखेरता सुगन्ध झूमता वो मन्द मन्द।

सम्मोहित सी पास

उसके गई मैं।

बूंदों की झड़ी से दिखता संतृप्त वो

पर न जाने क्यों मुझे लगा

उर से अतृप्त वो।

सो पूछ ही लिया मैंने….

ओ रे शुभ्र मोगरे, कैसी ये तृष्णा तेरी।

बारिश की लड़ी भी जो

तुझको है कम पड़ी।

वो थोड़ा उदास सा, कुछ मुझसे नाराज़ सा,

किंचित मेरा बोलना

लगा उसे परिहास सा।

बोला ए कामिनी, पीड़ा मेरी पृथक है,

भीगा जो है बूँदों से

वो तो मेरा तन है,

उसका क्या जो रीता रीता, रेत सा ये मन है।

अपने आराध्य से पृथक होने की

ये पीर है।

दिख रहे जो बूँदों से, वो तो मेरे नीर हैं।

डूबा है आकंठ मेरा

कान्हा के प्रेम में।

राधे सा विकल हूँ मैं, मधुकर के नेह में।

सुन के राग प्रेम का

मैं भी विह्लल हुई,

उर में घुमड़े मेघ और अँखियाँ सजल हुईं।

तोड़ा … जो धीरे से,

प्रसून वो चिहुँक उठा।

धीरे से जो मैंने उसे, रखा श्री चरणों में

चरणरज लगा के वो,

कुछ अधिक ही सुरभित हुआ।

सुनो… ए मील के पत्थर… अब मुझे तुम्‍हारी दरकार नहीं

सुनो….

ए मील के पत्थर।

अब मुझे तुम्हारी दरकार नहीं।

नहीं देखती अब मैं तुम्हारे माथे पे अंकित

वो अंकगणितीय छाप

के…. अब मुझे नहीं फ़र्क़ पड़ता

क्या है रास्ते की नाप।

विस्तृत कर लिया है मैंने

अपनी सोच का क्षेत्रफल।

अपनी बुद्धि को माथे की बिंदी समान

अपने ललाट के बीच केंद्रित लिया है

शब्दों को भी कानों के भीतर

छन छन के आने दे देती हूँ।

वो हर स्वर जो मुझे करे हतोत्साहित

उसका प्रवेश निषेध कर देती हूँ

अपने मन मस्तिष्क में।

नहीं फँसती अब मैं लुभावने स्वप्न जालों में,

और ना ही अतिरेक मिठास  लिए

किसी की वाणी में।

जो दूर हो मंज़िल तो भी

हताश नहीं होती

और धूप की तपिश से भी

 बेहाल नहीं होती।

नहीं लुभाते मुझे तुम्हारे आस पास लगे

सघन फ़लदार और छायादार वृक्ष,

नहीं चाहती सुस्ताना मैं खरगोश के मानिंद।

मुझे तो कछुए के जैसे

निरंतरता बनाए रखनी है

के पता है मुझे….

जो बोया था मैंने हिम्मत का बीज

उसके सहारे मैं पा लूँगी एक दिन

अपने लक्ष्य का फ़ल।

One comment

  1. बहुत बढ़िया कविता

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