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चिकित्सक और समाज : जरूरत है एक दूसरे को समझने की

डॉक्टर्स डे” (1 जुलाई 2024) के अवसर पर विशेष लेख डॉ सूर्यकांत की कलम से

डॉ बिधान चन्द्र रॉय (1 जुलाई,1882-1 जुलाई 1962)

भारतीय चिकित्सक, डा0 बी.सी. रॉय के जन्म एवं निर्वाण दिवस, (1 जुलाई) को ”चिकित्सक दिवस“ के रूप मे मनाते हैं। भारत रत्न डा0 बिधान चन्द्र रॉय का जन्म 1 जुलाई, सन् 1882 को तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेन्सी के अंतर्गत बांकीपुर (अब पटना) में हुआ था एवं उनकी मृत्यु 1 जुलाई 1962 को हुई। वे एक प्रख्यात चिकित्सक, स्वतंत्रता सेनानी, सफल राजनीतिज्ञ तथा समाजसेवी के रूप में याद किये जाते हैं। उन्होंने पटना कालेनियेट से 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कलकत्ता मेडिकल कालेज से मेडिकल ग्रेजुएट व इंग्लैंड से एम.डी., एम.आर.सी.पी., एफ.आर.सी.एस. उत्तीर्ण की, उसके बाद 1911 में भारत वापस आये।

डॉ सूर्यकान्त

इसके पश्चात चिकित्सा शिक्षक के रूप में कलकत्ता मेडिकल कालेज, एन.आर.एस. मेडिकल कालेज व आर.जी. कर मेडिकल कालेज में कार्य किया। वे मेडिकल कांउसिल ऑफ इंडिया (एम.सी.आई.) के अध्यक्ष भी रहे तथा राजनीतिज्ञ के रूप में कलकत्ता के मेयर, विधायक व पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री (1948 से 1962) भी रहे। वे मुख्यमंत्री रहते हुए भी प्रतिदिन निःशुल्क रोगी भी देखते थे। उन्हें 4 फरवरी 1961 को भारत रत्न की उपाधि प्रदान की गयी। उन्हीं को एक आदर्श भारतीय चिकित्सक के रूप में मानकर हम सभी चिकित्सक 1 जुलाई को *‘डॉक्टर्स डे‘* मनाते हैं।

इस वर्ष के चिकित्सक दिवस (डॉक्टर्स डे) की थीम है *‘‘हीलिंग हैन्डस, केयरिंग हार्टस‘‘*।निजीकरण और व्यवसायीकरण के इस युग में पूंजी सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। इसके फायदे कम हुए हैं, नुकसान ज्यादा। पूंजी बढ़ने से तकनीक और आधारभूत ढांचे में क्रांतिकारी सुधार हुए हैं। गांवों और कस्बों में पेड़ के नीचे खाट और बदहाल अस्पतालों में इलाज का दौर से अब सेवेन स्टार होटल नुमा अस्पतालों तक आ पहुंचा है। इससे जहां एक ओर इलाज की गुणवत्ता बढ़ी है तो वही दूसरी ओर खर्चे भी बढ़े हैं।

वर्ष 1994 में जब चिकित्सकीय पेशे को भी उपभोक्ता अधिनियम (कन्ज्यूमर एक्ट) में शामिल कर लिया गया, तब से यह चिकित्सकीय पेशा सेवा का माध्यम न हो कर एक व्यवसाय बन गया। इसे एक छोटे उदाहरण से समझिये कि जब आप ढ़ाबे पर दाल खाते है तो लगभग 100 रू में मिल जाती है, पर इसी दाल की कीमत स्टार होटल में पांच गुनी से भी ज्यादा हो जाती है। भारत में ज्यादातर प्राइवेट अस्पताल/नर्सिंग होम अब एक व्यवसाय हैं और कई बार इसके मालिक डॉक्टर न हो कर व्यवसायी ही होते हैं। ऐसे अस्पतालों को बनाने और चलाने में बहुत खर्चा आता है अतः यहाँ इलाज भी महंगा ही होगा। इन बेतहाशा बढ़े खर्चों का अर्थशास्त्र भी डाक्टरों से मरीजों के सम्बन्धों का मनोविज्ञान और मानसिकता बदल रहा है। जब मरीज की हालत गंभीर हो और धैर्य और सहनशीलता की सबसे ज्यादा जरूरत हो, मरीजों और चिकित्सकों के बीच स्थापित मर्यादा और सद्व्यवहार की लक्ष्मण रेखा आसानी से और अक्सर ही ध्वस्त हो जाती है।

कारणों की तह में जायें तो एक तथ्य यह भी सामने आता है कि दस-दस साल चिकित्सा शास्त्र के हर गूढ़ और गहन तथ्यों को समझने-बूझने में लगे डाक्टरों को मरीजों से उचित तरह से सम्वाद करने के लिये बिल्कुल भी प्रशिक्षित नहीं किया जाता। पढ़ाई के दौरान इन चिकित्सकों को प्रशासनिक प्रशिक्षण व कानूनी प्रशिक्षण भी नहीं दिया जाता, जिसके कारण आगे चलकर उन्हें मेडिको-लीगल व प्रशासनिक दायित्व निर्वाह करने में भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। इसीलिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, इंडियन इंजीनियरिंग सर्विसेज की तर्ज पर इंडियन मेडिकल सर्विसिज (आई.एम.एस.) की मांग कर रही है। (लेखक डॉ0 सूर्यकान्त रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग, किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ में विभागाध्यक्ष हैं)

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