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पार्किंसंस रोग के उपचार में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन एक महत्‍वपूर्ण विकल्‍प

-एसजीपीजीआई में न्‍यूरोलॉजी विभाग के स्‍थापना दिवस पर जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन

-वॉकाथॉन एवं संगोष्‍ठी आयोजित, विभिन्‍न वक्‍ताओं ने बताये वैकल्पिक चिकित्‍सा से उपचार के उपाय  

सेहत टाइम्‍स

लखनऊ। आम तौर पर पार्किंसंस के उपचार में दी जाने वाली दवाओं का असर पांच साल तक अच्‍छा चलता है, इसके बाद यह असर कम होने लगता है तो डोज बढ़ानी पड़ती है। ऐसे में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन की भूमिका महत्‍वपूर्ण है। यह एक सर्जरी प्रक्रिया है, जिसमें छोटा सा छेद करके तार डाल दिया जाता है, जिसके करंट से ब्रेन स्टिमुलेशन होता है।

यह जानकारी 15 अप्रैल को संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान के न्यूरोलॉजी विभाग के स्‍थापना दिवस के मौके पर आयोजित समारोह में विभाग की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ रुचिका टंडन ने दी। उन्‍होंने बताया कि पार्किंसंस रोग में मस्तिष्क के बेसल गैन्ग्लिया में डोपामाइन की कमी शामिल है उन्‍होंने बताया कि दवाओं से संबंधित कुछ साइड इफेक्ट वाले रोगियों में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन की भूमिका महत्‍वपूर्ण है। उन्‍होंने बताया कि पांच साल बाद दवाओं का असर कम होने लगता है। दवाओं का साइड इफेक्‍ट भी होने लगता है, ऐसी स्थिति में डीप ब्रेन स्टिमुलेशन की प्रक्रिया की जाती है। उन्‍होंने बताया कि तार में करंट पैदा करने के लिए एक बैटरी लगी होती है, यह दो प्रकार की होती है एक प्रकार की बैटरी करीब 15 वर्षों तक चलती है जबकि दूसरी प्रकार की बैटरी करीब पांच-छह साल चलती है, इसके बाद बैटरी बदलनी पड़ती है।  

विभाग की स्‍थापना दिवस की वर्षगांठ के मौके पर जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इसके तहत सुबह 7 बजे पार्किंसंस जागरूकता वॉक का आयोजन किया गया। वॉक को न्यूरोलॉजी विभाग के एचओडी एवं प्रोफेसर संजीव झा ने हरी झंडी दिखा कर रवाना किया, इसके बाद अपराह्न 1 बजे संस्थान के लेक्चर थियेटर में एक वैकल्पिक चिकित्सा सत्र आयोजित किया गया।

इस कार्यक्रम का उद्घाटन मुख्‍य अतिथि संस्थान के कार्यवाहक निदेशक प्रो. एस.पी. अंबेश ने किया। इस अवसर पर बोलते हुए उन्होंने बढ़ती उम्र की आबादी के कारण पार्किंसंस रोग के बढ़ते प्रसार के बारे में बात की और इस तरह के और अधिक जागरूकता कार्यक्रमों की आवश्यकता पर बल दिया। प्रोफेसर संजीव झा ने पार्किंसंस रोग में तनाव की भूमिका के बारे में बात की और सकारात्मक सोच पर जोर दिया।

न्यूरोसर्जरी विभाग के अध्यक्ष प्रो राजकुमार ने कहा कि कुछ आयुर्वेदिक दवाएं भी हैं, जो पार्किंसंस के लक्षणों से राहत दिला सकती हैं। प्रो नवनीत कुमार, पूर्व प्राचार्य, जीएसवीएम, मेडिकल कॉलेज, कानपुर ने  संस्थान के न्यूरोलॉजी विभाग को बधाई दी और पार्किंसंस रोग के रोगियों में प्राकृतिक उपचार और जीवन शैली प्रबंधन की भूमिका पर भी जोर दिया।

प्रोफेसर दीपिका जोशी, विभागाध्यक्ष  न्यूरोलॉजी, आईएमएस, बीएचयू, वाराणसी ने मरीजों को समय पर दवा लेने और जरूरत पड़ने पर डीबीएस से परहेज न करने की सलाह दी। उन्होंने प्राकृतिक उत्पादों पर शोध पर भी जोर दिया। प्रोफेसर आरके गर्ग ने हंसी को थेरेपी के तौर पर बहुत प्रभावी बताया।

डॉ जफर नियाज, प्रोफेसर, रेडियोलॉजी, एसजीपीजीआई ने पार्किंसंस रोग के निदान के लिए एम आर आई की आवश्यकता के विषय में जानकारी दी। डॉ पवन कुमार वर्मा, एसोसिएट प्रोफेसर, न्यूरोसर्जरी विभाग, एसजीपीजीआई ने कहा कि डीबीएस में एक बहुत छोटा चीरा शामिल होता है और जरूरत पड़ने पर इसे उलटा भी किया जा सकता है, तत्पश्चात विभाग के रेजिडेन्ट चिकित्सकों द्वारा इस बीमारी से पीड़ित उन रोगियों के मामले पर चर्चा की गई, जो डीबीएस से लाभान्वित हुए हैं।

डॉ. शिल्पी त्रिपाठी द्वारा इस रोग के प्रबंधन की दिशा में आहार से संबंधित विशिष्टताओं को बताया गया और रितेश सिंह द्वारा एक न्यूरोस्टिम्यूलेशन के रूप में संगीत की भूमिका पर जोर दिया गया। 

इस अवसर पर डॉ. वी के पालीवाल, प्रोफेसर, न्यूरोलॉजी व विभाग के अन्य संकाय सदस्य भी उपस्थित थे। धन्यवाद ज्ञापन डॉ रुचिका टंडन द्वारा  किया गया। इस अवसर पर संस्थान के निदेशक ने रोगियों के बीच पार्किंसंस सप्ताह प्रतियोगिता के विजेताओं को स्मृति चिन्ह भी वितरित किए। कार्यक्रम में भाग लेने वाले प्रत्येक रोगी को भी स्मृति चिन्ह प्रदान किये गये।

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