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प्रकृति संरक्षण के प्रति अभिवृत्ति- मानसिक स्वास्थ्य का एक पैमाना यह भी

-हम सौंदर्य और समृद्धि के उपभोगकर्ता तो बने लेकिन संरक्षक नहीं

-प्रकृति संरक्षण के प्रति लापरवाही को इंगित करता डॉ आभा सक्‍सेना का लेख

डॉ आभा सक्‍सेना

यह दुनिया ईश्वर की अप्रतिम कृति है और मनुष्य उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना। सौंदर्य और समृद्धि को हासिल कर लेने की मनुष्य की प्रवृत्ति बड़ी पुरानी है, पर क्या मनुष्य सौंदर्य और समृद्धि का संरक्षक भी है? शायद नहीं।

ईश्वर ने जब यह दुनिया बनाई तो इसमें सौन्दर्य और समृद्धि के खजाने के रूप में पर्वत, सागर, नदियां और भूगर्भीय संपत्ति सब प्रदान किया। परमात्मा को लगा उसकी इतनी खूबसूरत दुनिया को कोई समझने वाला भी होना चाहिए जो उसकी कृति को हृदय से चाह सके, उसकी सुंदरता पर रीझ सके। इसीलिए परमात्मा ने इंसान बनाया। इंसान, ईश्वर की बनाई इस दुनिया पर रीझा भी और उसने उसको जी जान से चाहा भी, पर स्वामित्व भाव से…,समर्पण भाव से बंदगी नहीं की इंसान ने ईश्वर की बनाई सृष्टि की। उपभोक्तावादी होकर भरपूर उपभोग किया सृष्टि के कण-कण का। पर पिता की भांति संवर्धन नहीं किया। भाई की भांति रक्षा भी नहीं की और प्रियतम की भांति श्रृंगार भी नहीं किया।

प्रकृति के साथ मनुष्य का यह संबंध देखकर यह महसूस हुआ कि मनुष्य बाह्य और शारीरिक सौंदर्य का जितना चितेरा है मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उतना ही लापरवाह भी है।

मानसिक स्वास्थ्य के विभिन्न लक्षणों के आधार पर मनुष्य को अगर प्रकृति के संदर्भ में समझना चाहे तो एक ओर उसका व्यक्तित्व विघटित नजर आता है तो दूसरी ओर वातावरणीय जागरूकता का सर्वथा अभाव उसमें देखने को मिलता है। सत्य की परख की कमी भी महसूस होती है। तभी तो ऐसा स्वार्थपूर्ण, दूरदर्शिता रहित व्यवहार वह करता है।  प्रकृति के अनमोल खजानों के प्रति उसकी लापरवाही बताती है कि कितना संवेदनहीन है मनुष्य। वह यह नहीं जानता की प्रकृति की अक्षय संपत्ति पैसों से न खरीदी जा सकती है और न पुनर्जीवित की जा सकती है। यदि प्रकृति का असीमित भंडार ही समाप्त हो जाएगा तो प्राणी मात्र का जीवन किन कठिनाइयों से गुजरेगा, इस तथ्य का मनुष्य को एहसास ही नहीं। तभी तो जल संपदा, वन संपदा, खनिज संपदा आदि का इतना बेरहमी से उपभोग मनुष्य ने किया है। स्वार्थ में उसने यह भी नहीं देखा अरबों की आबादी का जो भावी प्राणी संसार वह अपने पीछे छोड़कर जाएगा उसके जीवन की मूलभूत जरूरतें भी यह प्रकृति पूरी कर पाएगी या नहीं।

आत्म मंथन करिये और अपना मानसिक स्वास्थ्य स्तर पहचानिए

 स्वार्थ भावना के तहत प्रदूषित होती नदियां, सूने होते हुए वन, खोखले होते हुए भूगर्भ, दैनिक कार्यों को करते समय बर्बाद होता हुआ नल से बहने वाला पानी, औद्योगिकरण और शहरीकरण के नाम पर बढ़ता वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण यह सब एक तरफ आईना है प्रकृति के संदर्भ में हमारे मानसिक स्वास्थ्य का, तो दूसरी तरफ कोसों दूर से पानी भरकर लाने को मजबूर स्त्रियां, दाने-दाने को मोहताज जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा, विलुप्त होती प्राणियों की प्रजातियां, कमजोर पड़ती ओजोन की परत, पिघलते ग्लेशियर, बढ़ते तापमान सब कहानी कहते हैं मनुष्य के स्वार्थ की, संवेदनहीनता की, मानसिक अस्वस्थता की।

(लेखिका डॉ आभा सक्‍सेना कानपुर (उत्‍तर प्रदेश) में असिस्‍टेंट प्रोफेसर, काउंसिलिंग मनोवैज्ञानिक (रिलेशनशिप मैनेजमेंट/पेरेंटिंग एक्सपर्ट) हैं)