-स्वप्न, भ्रम, डर आदि के चलते मन:स्थिति से पैदा होती हैं अनेक शारीरिक बीमारियां : डॉ गिरीश गुप्ता
-केन्द्रीय होम्योपैथी अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के स्थापना दिवस की प्रथम वर्षगांठ पर सेमिनार आयोेजित
सेहत टाइम्स
लखनऊ। डॉक्टर साहब मुझे लगातार जहर दिया जाता है जिससे कि मैं मर जाऊं…
मुझे लगता है कि कोई मेरा पीछा कर रहा है…,
मुझे लगता है कि फलां जगह सांप है…
मैं सपना देखता हूं कि मैं बस पकड़ने जा रहा हूं और कोशिश के बाद भी मेरी बस छूट गयी…
मैं सपने में रोज न्यूयार्क उड़ कर जाता हूं फिर वापस आ जाता हूं…
मैं सपने में देखती हूं कि मेरी परीक्षा छूट गयी, मेरी कॉपी अधूरी रह गयी, छीन ली गयी…
मैं ऊंचाई से गिरने का सपना देखता हूं…
मुझे भूत के सपने आते हैं…
मुझे मकड़ी से डर लगता है…
मेरी पत्नी को कॉकरोच से कुछ ज्यादा ही डर लगता है…
मुझे चूहों से डर लगता है…
पुल से नीचे देखने में डर लगता है…
ये सभी वे दिक्कतें हैं जो अनेक विश्वस्तरीय वैज्ञानिक साक्ष्य आधारित होम्योपैथिक रिसर्च कर चुके गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च, लखनऊ के संस्थापक वरिष्ठ होम्योपैथिक चिकित्सक डॉ गिरीश गुप्ता के पास अलग-अलग प्रकार के रोगों का इलाज कराने आये मरीजों से उनकी हिस्ट्री लेते समय पूछने पर ज्ञात हुईं, इन मरीजों में महिला एवं पुरुष दोनों ही शामिल थे, बीमारियों में महिलाओं को जहां ओवेरियन सिस्ट, पीसीओडी, स्तन में गांठ, यूट्राइन फायब्रायड, नैबोथियन सिस्ट, सर्वाइकल पॉलिप जैसे अनेक रोगों की शिकायत थी वहीं पुरुष विभिन्न त्वचा रोगों, सफेद दाग, सोरियासिस जैसी बीमारियों से ग्रस्त थे। जब इन लक्षणों को भी केन्द्र बिंदु में रखकर दवा का चुनाव किया गया तो मरीजों को न सिर्फ उनके शारीरिक रोगों से मुक्ति मिली बल्कि मन:स्थिति पर असर डालने वाली उनकी दिक्कतें भी दूर हो गयीं।
ये महत्वपूर्ण जानकारी डॉ गिरीश गुप्ता ने 9 जनवरी को केन्द्रीय होम्योपैथी अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के स्थापना दिवस की प्रथम वर्षगांठ पर आयोजित एक दिवसीय सेमिनार में अपने व्याख्यान में दी। उपस्थित पीजी स्टूडेंट्स का आह्वान करते हुए डॉ गिरीश ने कहा कि डॉ सैमुअल हैनिमैन के दिये हुए होम्योपैथिक के सिद्धांत के अनुरूप इलाज रोग का नहीं, रोगी का होता है, इसलिए होलिस्टिक अप्रोच के साथ मरीज के लिए दवा का चुनाव करने से पूर्व उसकी पूरी हिस्ट्री अवश्य लें। उन्होंने कहा कि आप कितने भी मरीज ठीक करने में सफलता हासिल कर लें लेकिन उसकी सर्व स्वीकार्यता तभी है जब आप अपनी सफलता के साक्ष्य प्रस्तुत करेंगे। इसके लिए मरीजों का पूरा डेटा जैसे मरीज कब-कब आया, उसे कितना आराम था, नहीं था, क्या दवा दी, आदि का रिकॉर्ड रखें, रिकॉर्ड में रखने के लिए मरीज की सभी जांच रिपोर्ट की कॉपी रखें, शुरुआत में हो सकता है आपको इस रिकॉर्ड को रखने में दिक्कत आये लेकिन धीरे-धीरे आप इसके अभ्यस्थ हो जायेंगे। रोग ठीक होने के बाद मरीजों के पूरे रिकॉर्ड व साक्ष्य के साथ अपना पेपर प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित करायें। जब आप इतना कर लेंगे तो दुनिया में कोई भी आपको आगे बढ़ने से रोक नहीं सकेगा।
उन्होंने कहा कि यह सलाह मैं इसलिए आपको दे रहा हूं क्योंकि मैं स्वयं यह कार्य कर चुका हूं, और इसी का नतीजा है कि किसी भी पैथी का कोई भी व्यक्ति वैज्ञानिक साक्ष्य आधारित मेरे शोधों पर उंगली नहीं उठा पाता है। उन्होंने कहा कि आज के व्याख्यान का विषय एवीडेंस बेस्ड रिसर्च इन गाइनीकोलॉजी है। स्त्रियों के जिन विशेष रोगों पर मेरे द्वारा किये गये शोधों के बारे में मैंने अपनी पुस्तक Evidence based Research of Homoeopathy in Gynaecology में इन रोगों के मॉडल केसेज प्रस्तुत किये हैं। ये सभी केसेज प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में छप चुके हैं, जिनका संदर्भ थीसिस पेपर लिखने के दौरान भी किया जा सकता है।
डॉ गिरीश गुप्ता ने अपने व्याख्यान में ओवेरियन सिस्ट, यूट्राइन फायब्रायड और फाइब्रोऐडेनोमा के मॉडल केसेज के बारे में विस्तार से जानकारी दी। उन्होंने बताया कि बीमारी की शुरुआत माइंड यानी मन से होती है, व्यक्ति की सोच जो कि अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग होती है, इस सोच का प्रभाव मन पर पड़ता है। उन्होंने बताया कि जो भी बीमारियां हैं, इनका जब तक कारण नहीं ढूंढ़ा जाएगा, तब तक उनका जड़ से इलाज संभव नहीं हो पाता है। उन्होंने कहा कि रोग की उत्पत्ति का मार्ग पहले मन (Psycho), फिर तंत्रिका (Neuro), फिर अंतःस्रावी (endocrine), और फिर अक्ष (Axis) तक जाता है। ब्रेन मास्टर अंग है, जो पूरे शरीर को कंट्रोल करता है, और ब्रेन मन के कण्ट्रोल में होता है। भ्रम, सपनों, डर आदि का प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है, जो दिमाग को प्रभावित करता है। वहां से न्यूरोलॉजिकल पाथवे से या फिर एंडॉक्राइनोलॉजिकल यानी हार्मोनल पाथवे से शरीर के विभिन्न अंगों पर असर जाता है, जिससे सिस्ट आदि शारीरिक बीमारियां पैदा हो जाती हैं। डॉ गिरीश ने एक महत्वपूर्ण जानकारी देते हुए बताया कि सर्जरी (प्रभावित अंग को ही हटा देना) भी एक प्रकार का रोग को दबाना है, क्योंकि जो कारण हैं उनको अगर समाप्त नहीं किया गया तो एक अंग से हटे तो दूसरे, दूसरे से हटे तो तीसरे यानी लगातार किसी न किसी अंग को प्रभावित करते रहेंगे, इसलिए रोग के कारण को समाप्त करना ही स्थायी इलाज है।
शोध के लिए किस प्रकार तैयार करें प्रश्न
एक अन्य वक्ता केजीएमयू में कार्यरत डॉ शैलेन्द्र सक्सेना ने अपने व्याख्यान में बताया कि शोध कार्य करने के लिए किस प्रकार तैयारी करें। उन्होंने बताया कि कैसे लोगों से बात करें, किस प्रकार के प्रश्न मरीजों से पूछें क्योंकि कई बार गलत तरीके से पूछे गये प्रश्नों के कारण भी शोध का पेपर रिजेक्ट हो जाता है। उन्होंने कहा कि कम से कम 3 से 6 माह तक ओपीडी मेंं मरीजों से हुए वार्तालाप के आधार पर प्रश्न तैयार करें, क्योंकि वहां पर जिन विषयों पर बात होगी, वह मरीज से सीधे तौर पर जुड़े होंगे और विशेष महत्व रखते होंगे। उन्होंने कहा कि मरीज जिस वातावरण में रह रहा है, उसको ध्यान में रखकर प्रश्न पूछे, उन्होंने उदाहरण दिया कि जैसे कि ऐलोपैथी में ज्यादातर दवाएं पश्चिमी वातावरण को ध्यान में रखकर खोजी गयी हैं, जबकि भारत जैसे पूर्वी क्षेत्र का वातावरण अलग है, ऐसे में जाहिर है पश्चिमी वातावरण को ध्यान में रखकर खोजी गयी दवायें भारत के मरीजों को कैसे उसी तरह लाभ दे सकती हैं।
सीआईआरएच की साइंटिफिक कमेटी के अध्यक्ष, गाजीपुर राजकीय होम्योपैथिक कॉलेज के प्राचार्य डॉ राजेन्द्र सिंह राजपूत ने गुड क्लीनिकल प्रैक्टिस की गाइडलाइन्स के बारे में जानकारी दी। जबकि सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन होम्योपैथी सीसीआरएच के डिप्टी डाइरेक्टर जनरल डॉ सुनील एस रामटेके ने सीसीआरएच गतिविधियों और उपलब्धियों के बारे में जानकारी दी। रिसर्च ऑफीसर डॉ वाराणसी रोजा ने केस रिपोर्ट प्रस्तुत की, जबकि केन्द्रीय होम्योपैथी अनुसंधान संस्थान, लखनऊ की प्रभारी डॉ लिपिपुष्पा देबता ने होम्योपैथी में शोध कार्य के महत्व के बारे में जानकारी दी।