लखनऊ। विश्व स्वास्थ्य संगठन के डब्लूएचओ के एक अनुमान के अनुसार, पर्यावरण को स्वस्थ बनाकर विश्व में हर साल 1.3 करोड़ मौतों को रोका जा सकता है। दुनिया भर में 25 प्रतिशत बीमारियों के लिए प्रदूषित वातावरण जिम्मेदार है और प्राय: 85 प्रतिशत प्रमुख बीमारियों को पर्यावरणीय कारकों से जोड़ा जा सकता है। हाल ही में अख़बारों की खबरों में डब्ल्यूएचओ का हवाला देते हुए यह सुझाव दिया गया है कि बच्चों के विकास के लिए भारत का पर्यावरण अत्यंत खराब पर्यावरणों में से एक माना गया है।
सिर्फ भारत में ही 10 लाख से ज्यादा मौतें
निराशाजनक पर्यावरण परिदृश्य को देखते हुए पर्यावरण प्रदूषण: महिलाओं और बाल स्वास्थ्य पर प्रभाव समस्या पर मंथन के लिए लखनऊ में पूरे देश के विशेषज्ञ चिकित्सक, तंत्रिका विज्ञानी और स्वास्थ्य वैज्ञानिकों एकत्रित हुए हैं। चिकित्सा विशेषज्ञों के अतिरिक्त इस कार्यक्रम में, आईआईटी के पर्यावरण वैज्ञानिक, पर्यावरणीय कानून के विशेषज्ञ और गैर सरकारी संगठनों के सदस्य भी प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। यह सर्वविदित है कि विश्व भर में वायु प्रदूषण प्रमुख हत्यारों में से एक है, जिससे अकेले भारत में ही 10 लाख से अधिक मौतें हुई हैं।
दूरगामी परिणाम हो सकते हैं मृदा प्रदूषण के
पर्यावरण वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं के लिए चिंता का दूसरा प्रमुख कारण मृदा और जल प्रदूषण है। भारत जैसे देश में, जहां विश्व की मानव आबादी का 18 फीसदी और पशुधन आबादी का 15 फीसदी विश्व के केवल 2.4 फीसदी जमीनी क्षेत्र में ही है, मृदा प्रदूषण के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं और यह बड़ी चिंता का विषय है। मृदा में अवांछित मानव निर्मित सामग्रियों की उपस्थिति, जिनमे कीटनाशक, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन, पॉलीएरोमेटिक हाइड्रोकार्बन और भारी धातुएं मुख्य हैं, मानव स्वास्थ्य और अन्य जीवन रूपों के लिए गंभीर रूप से हानिकारक हैं। आवश्यक है कि पर्यावरण में विभिन्न संदूषकों और नए संदूषकों की मात्रा को अधिकतम स्वीकार्य स्तरों के भीतर ही रखा जाए, नियामक मानकों को मजबूत किया जाए और उपचारात्मक कार्यों के लिए रणनीतियां बनाई जाएं।
पानी में आर्सेनिक से प्रभावित हो रहे हैं 15 करोड़ से ज्यादा
यह व्यापक रूप से ज्ञात है कि विश्व में 15 करोड़ से अधिक लोग पीने के पानी के माध्यम से आर्सेनिक से प्रभावित हो रहे हैं। 7 राज्यों के 5 करोड़ भारतीय पीने के पानी के माध्यम से आर्सेनिक द्वारा प्रभावित हो रहे हैं। हालांकि कोई प्रत्यक्ष प्रमाण स्थापित नहीं किया जा सकता लेकिन भारी धातुओं और कीटनाशकों के सम्मिलित जोखिम प्रतिकूल प्रजनन और बाल स्वास्थ्य परिणामों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं। पर्यावरण प्रदूषण के कारण सामान्य स्वास्थ्य रोगों के साथ-साथ जीनोटॉक्सिक प्रभाव की अभिव्यक्ति भी दर्ज की गई है। बच्चों में न्यूरोडेवेलपमेंटल विकलांगता की बढ़ती घटनाओं का कारण आर्सेनिक और पाइरिथ्रॉइड के बढ़ते जोखिम से जोड़ा गया है। हालांकि आनुवांशिक, पर्यावरणीय और पोषण संबंधी कारकों का इन रसायनों की विषाक्तता में काफी योगदान होता है, इनका प्रभाव और तीव्रता विभिन्न कारकों जैसे उम्र, लिंग और एक्स्पोसर के मार्ग पर निर्भर करती है।
दो दिनों के मंथन में निकला अमृत : यह करना होगा
इन सभी समस्याओं की पहचान करने, उन्हें उचित तरीके से निपटाने और उन्हें सुलझाने की उपयुक्त रणनीति तैयार करने के लिए एक पैनल चर्चा भी आयोजित की गई। यह सुझाव दिया गया कि इस क्षेत्र में आज उपलब्ध नवीनतम माइक्रो और नैनो टेक्नोलॉजी टूल्स का इस्तेमाल करते हुए बड़े पैमाने पर बहु केंद्रित अध्ययन करना अति आवश्यक है। आनुवांशिक अध्ययन को बहु केंद्रित महामारी विज्ञान अध्ययन को साथ रख कर करना चाहिए और और सूक्ष्म विज्ञान और प्रभावित आबादी के बीच एक संबंध स्थापित किया जाना चाहिए, तभी आज के रसायनों के जहरीली स्वभाव के बारे में संदेह समाप्त होंगे और निश्चित प्रमाण मिल पाएगा। इसके पश्चात ही कानून इस दिशा में सुधारात्मक और निवारक कार्रवाई करने के लिए प्रेरित करेगा और हमारे बच्चों के लिए देश एक बेहतर स्थान होगा।