लखनऊ। पित्त की थैली में पथरी की सर्जरी के 30-40 प्रतिशत केसों में सर्जरी के दौरान स्पष्ट होता है कि गॉल ब्लैडर में कैंसर है जबकि सर्जरी पथरी समझकर की जाती है। अगर, लेप्रोस्कोपिक तकनीक से गाल ब्लैडर निकालने में दिक्कत आ रही हो तो समझ लीजिये कि कैंसर है।
लोहिया संस्थान ने आयोजित की गॉल ब्लैडर में कैंसर पर कार्यशाला
यह जानकारी शनिवार को डॉ.राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के ऑन्कोलॉजी विभाग द्वारा आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में डॉ.आकाश अग्रवाल ने दी।
यहां आयोजित कार्यशाला में डॉ.अग्रवाल ने बताया कि अच्छी गुणवत्ता के अल्ट्रासाउण्ड मशीन न होने की वजह से गाल ब्लैडर के सभी कैंसर की शुरूआती दिनों में पहचान नहीं होती है। लिहाजा डॉक्टर पथरी समझकर इलाज करते रहते हैं और समय देखकर सर्जरी प्लान करते हैं। सर्जरी के दौरान ज्ञात होता है, गाल ब्लैडर में जिसे पथरी समझ रहे थे वह कैंसर की गांठ थी। जिसे निकालना जरूरी हो जाता है। कई केसो में कैंसर गंभीर हो चुका होता है, लिहाजा इलाज कठिन हो जाता है। इसके अलावा उन्होंने बताया कि कैंसर की वजह से मरीज में पीलिया हो जाता है। इनमें पहले पीलिया को कम करते है उसके बाद ही सर्जरी प्लान करते हैं।
पित्त की थैली की मोटाई बढ़ गयी हो तो…
इन केसों की समय रहते पहचान के लिए डॉ.अग्रवाल ने बताया कि पित्त की थैली की मोटाई बढ़ गई हो, गाल ब्लैडर में अंदर मांस (ग्रोथ) बढ़ गया हो, इसके अलावा दवाओं से आराम न मिल रहा हो तो कैंसर की जांच जरूरी है। इसके अलावा दूरबीन विधि से सर्जरी करने पर गाल ब्लैडर काटने में दिक्कत आ रही है तो कैंसर होने की संभावना अधिक होती है। इस अवसर पर संस्थान के निदेशक डॉ.दीपक मालवीय समेत अन्य फैकल्टी मौजूद रही।
सोमवार व मंगलवार को विशेष ओपीडी लोहिया में
डॉ.अग्रवाल ने बताया कि सप्ताह में दो दिन लिवर व गाल ब्लैडर कैंसर मरीजों की ओपीडी संचालित होती है, इसमें हर ओपीडी में 25 से 30 केस कैंसर के आते हैं। इनमें 90 प्रतिशत मरीजों में कैंसर गंभीर हो चुका होता है। इन मरीजों को में पहले ट्रीटमेंट कर मरीज को स्टेबिल करते हैं उसके बाद सर्जरी प्लान करते हैं।

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