लखनऊ। भारत-पाकिस्तान के बीच 1971 में हुए युद्ध के बाद सैनिकों के पुनर्वास को ध्यान में रखते हुए लखनऊ के डालीगंज में स्थापित पुृनर्वास एवं कृत्रिम अंग केंद्र आज नवीनतम तकनीकियों के साथ हाथ मिलाते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कृत्रिम अंग का निर्माण कर रहा है वह भी बहुत कम कीमत पर। गरीब स्तर के जरूरतमंद मरीजों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कृत्रिम अंग बनाकर देने वाले इस लिम्ब सेंटर में कृत्रिम पैर, कृत्रिम हाथ सहित अनेक प्रकार के उपकरण बनते हैं इन उपकरणों की सहायता से दिव्यांग लोग सफलता के नये-नये आयाम स्थापित कर शान के साथ अपने कार्यों को करने में सफल हो रहे हैं।
असली जैसे दिखते हैं कृत्रिम अंग
‘सेहत टाइम्स’ ने किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले इस लिम्ब सेंटर का दौरा किया तो जहां इन उपकरणों का निर्माण करने में टेक्नीशियंस जुटे थे वहीं अनेक मरीज अपने-अपने उपकरणों के साथ प्रैक्टिस कर रहे थे। इस मौके पर मौजूद वर्कशॉप मैनेजर अरविन्द निगम ने हमें यहां होने वाले उपकरणों के निर्माण के बारे में जानकारी दी। उन्होंने बताया कि एक समय था जब भारी भरकम लकड़ी के बने पैर के साथ दिव्यांगों को चलना मजबूरी होती थी साथ ही वह एक्सो स्केल्टन यानी बाहर से देखने में भी अलग तरीके का दिखता था लेकिन अब मॉड्युलर इंडो स्केल्टन कृत्रिम अंगों का निर्माण हो रहा है। ये अंग काफी हल्के होते हैं जिससे व्यक्ति को अपना सामान्य जीवन जीने में मशक्कत नहीं करनी पड़ती है। इंडो स्केल्टन होने के कारण ये नेचुरल दिखते हैं साथ ही इनका निर्माण भी शीघ्र हो जाता है।
मल्टीनेशनल कंपनियों के मुकाबले बेहद सस्ता
श्री निगम ने बताया कि इस तरह के उपकरण मल्टीनेशनल कम्पनियां बनाती हैं उनकी तुलना में बेहद कम कीमत पर यहां उपकरणों का निर्माण हो रहा है। एक उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि जैसे बिलो नी प्रॉस्थिसिस यानी घुटने के नीचे कटे हुए पैर के लिए बनने वाला कृत्रिम पैर मल्टीनेशनल कंपनियों में 70 हजार से दो लाख तक की कीमत में मिलता है जबकि उसी तरह का यहां बनने वाला कृत्रिम पैर मात्र 10 से 12 हजार रुपये में ही तैयार हो जाता है। दरअसल दामों में इतना फर्क होने का बड़ा कारण केजीएमयू के इस लिम्ब सेंटर का सरकार के नियंत्रण के अधीन होना है क्योंकि मल्टीनेशनल कंपनियों में जहां कर्मचारियों की तनख्वाह से लेकर प्रत्येक खर्च को समायोजित करते हुए उपकरण की कीमत तय की जाती है वहीं यहां पर तैयार किये जा रहे उपकरणों में मुख्यत: उपकरण बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल की कीमत ही शामिल रहती है।
भारत में नम्बर एक स्थान पर है लखनऊ का लिम्ब सेंटर
श्री निगम ने बताया कि देश में सरकारी क्षेत्र में मौजूद इस तरह के पांच संस्थानों में लखनऊ के लिम्ब सेंटर का पहला स्थान है। लखनऊ के अलावा ऐसे सेंटर मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता और उड़ीसा के कटक में हैं ये सभी केंद्र सरकार के अधीन हैं। उन्होंने बताया कि हमारे यहां प्रतिवर्ष करीब 400 कृत्रिम अंग तथा 8500 सहायक उपकरणों का निर्माण होता है, जबकि अन्य सेंटरों पर इतना उत्पादन नहीं है।
श्री निगम ने बताया कि हर आयु वर्ग के लोगों के लिए यहां उपकरण तैयार किये जाते हैं, उन्होंने बताया कि बीती 23 जनवरी को मात्र डेढ़ वर्ष की बच्ची को कृत्रिम पैर लगाया गया है। उपकरणों की कार्यक्षमता के बारे में पूछने पर श्री निगम ने बताया कि व्यक्ति अपने दैनिक कार्यों को आराम से कर लेता है जैसे कृत्रिम हाथ से गिलास, चम्मच आदि पकडऩा यहां तक कि कलम पकड़ कर लिखता भी है।
वर्कशॉप में कृत्रिम हाथ-पैर आदि का निर्माण करने वाले प्रॉस्थिसिस सेक्शन की इंचार्ज शगुन सिंह ने बताया कि आमतौर पर वैसे तो उपकरण का निर्माण एक हफ्ते में पूरा हो जाता है लेकिन दिव्यांगजनों को उपकरण के साथ प्रैक्टिस कराके प्रशिक्षित करने में एक हफ्ते का समय और लग जाता है।