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मोतियों के समुद्र में काम का मोती ढूंढ़ने जैसा है एक मर्ज की सैकड़ों दवाओं में से सटीक दवा का चुनाव

-असाध्‍य रोगों को ठीक करने वाले गौरांग क्‍लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्‍योपैथिक रिसर्च’ की कार्यप्रणाली पर एक रिपोर्ट

धर्मेन्‍द्र सक्‍सेना

लखनऊ। होम्‍योपैथिक दवाओं से लाभदायक उपचार के लिए आवश्‍यक है कि उस रोग के लिए उपलब्‍ध सैकड़ों दवाओं के समुद्र से उस दवा का चुनाव करना जो उस मरीज विशेष को फायदा करेगी। क्‍योंकि होम्‍योपैथी का सिद्धांत है इसमें इलाज रोग का नहीं बल्कि रोगी का किया जाता है। दवा का चुनाव करते समय मरीज के स्‍वभाव, उसकी वस्‍तुओं को अच्‍छा–बुरा लगने की प्रवृत्ति, उसकी मानसिक सोच जैसे कारणों को परखना अत्‍यन्‍त आवश्‍यक है।

ऐसी चमत्‍कारिक और खूबियों से भरी चिकित्‍सा पद्धति की विडम्‍बना यह है कि इससे इलाज करने वाले ज्‍यादातर चिकित्‍सक मरीजों का लेखा-जोखा नहीं रखते हैं, जिससे वे आधिकारिक रूप से दावा कर सकें कि अमुक दवा से इतनी संख्‍या में मरीजों को लाभ हुआ, इतनों को कम हुआ, इतनों को नहीं हुआ। इसका एक नुकसान यह है कि बहुत से लोगों को अभी पता ही नहीं है कि उन रोगों का भी होम्‍योपैथी में पूर्ण इलाज है, जिन रोगों और परेशानियों के साथ जीवन जीना लोग अपनी नियति मान चुके हैं। दूसरा नुकसान है पद्धति के प्रति अविश्‍वास, क्‍योंकि व्‍यक्ति सबूत देखना चाहता है, शायद यही वजह है कि इस पद्धति को सरकारी स्‍तर पर वह स्‍थान नहीं मिल सका जो ऐलोपैथी को मिला है। शिशु से लेकर बुजुर्गों तक आसानी से ले सकने वाली सस्‍ती होम्‍योपैथिक दवाओं में अनेक असाध्‍य रोगों को जड़ से समाप्‍त करने का दम है।

डॉ गिरीश गुप्‍ता

बहुत कम ऐसे होम्‍योपैथिक चिकित्‍सक हैं जो अपने मरीजों का रिकॉर्ड रखते हैं, विभिन्‍न प्रकार के रोगों में होम्‍योपैथिक दवाओं से लाभ के लिए रिसर्च करते है। ऐसे ही एक चिकित्‍सक हैं राजधानी लखनऊ स्थित गौरांग क्‍लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्‍योपैथिक रिसर्च के संस्‍थापक होम्‍योपैथिक विशेषज्ञ डॉ गिरीश गुप्‍ता।   डॉ गिरीश गुप्‍ता के राष्‍ट्रीय और अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर जर्नल में कई रिसर्च पेपर्स छप चुके हैं। होम्‍योपैथी को बढ़ावा मिले, लोगों को असाध्‍य रोगों से छुटकारा मिले, इस आशय से डॉ गुप्‍ता ने गायनोकोलॉजी और डर्मेटोलॉजी सम्‍बन्‍धी रोगों के उपचार को लेकर दो पुस्‍तकें भी लिखी हैं। इन पुस्‍तकों में अनेक असाध्‍य माने जाने वाले रोगों के सफल इलाज के सबूत के रूप में उपचार प्रक्रिया का वर्णन विस्‍तार से किया गया है।

डॉ गिरीश गुप्‍त की इस असाधारण सफलता के पीछे की कार्यप्रणाली को जानने के लिए ‘सेहत टाइम्‍स’ ने डॉ गुप्‍ता के अलीगंज लखनऊ स्थित संस्‍थान गौरांग क्‍लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्‍योपैथिक रिसर्च का दौरा किया तथा यह जानने की कोशिश की कि निजी क्षेत्र में होम्‍योपैथिक रिसर्च जैसा संस्‍थान सफलतापूर्वक चलाने राज क्‍या है। हमें बताया गया कि यहां कार्य एक चिकित्‍सक नहीं, पूरी टीम करती है।

मरीज के पहली बार आने पर

सर्वप्रथम मरीज का पर्चा बनने (रजिस्‍ट्रेशन) के बाद उसे प्रथम चरण में केस टेकिंग में चिकित्‍सक के पास भेजा जाता है, जो मरीज से उसे होने वाली दिक्‍कतों को सुनता है, इसके बाद मरीज से उसकी प्रकृति से सम्‍बन्धित सवाल पूछे जाते हैं जैसे बीमारी को लेकर फैमिली हिस्‍ट्री तो नहीं, उसे दिक्‍कत कब ज्‍यादा और कब कम होती है, प्‍यास, पसंद, नापसंद, फीमेल के केस में यदि बैचलर है तो पीरियड के बारे में और अगर विवाहित है तो एबॉर्शन आदि की हिस्‍ट्री ली जाती है, इसके अलावा बहुत सी ऐसी बातें जो आमतौर पर छोटी नजर आती हैंं, और मरीज अपने आप बताने की सोच भी नहीं पाता है, के बारे में जानकारी लेकर मरीज की बीमारी डायग्‍नोस की जाती है, तथा जरूरत के अनुसार मरीज को डाइट, फीजियोथैरेपी, योगाभ्‍यास, पैथोलॉजी, एक्‍सरे, अल्‍ट्रासाउंड आदि जांच के लिए सम्‍बन्धित विभाग में भेज दिया जाता है।

इसके बाद मरीज दूसरे चरण में दूसरे वरिष्‍ठ चिकित्‍सक के पास रिपर्टिंग के लिए पहुंचता है, यहां पर चिकित्‍सक मरीज के मानसिक लक्षणों को देखते हैं, क्‍योंकि होम्‍योपैथी में इलाज मस्तिष्‍क और शरीर को अलग-अलग नहीं बल्कि एक मानते हुए होलिस्टिक एप्रोच लेकर किया जाता है। इसका कारण है मानसिक स्थितियों से उत्‍पन्‍न होने वाले सीक्रेशंस से अनेक प्रकार के रोगों का जन्‍म होना, विशेषकर ऑटो इम्‍यून डिजीजेज। ऑटो इम्‍यून डिजीजेज में महिलाओं के रोग, त्‍वचा के विभिन्‍न प्रकार के रोग शामिल हैं। यहां पर चिकित्‍सक मरीज से उनकी मानसिक स्थिति की हिस्‍ट्री लेते हैं, जैसे जीवन में किसी बात से मरीज को सदमा तो नहीं लगा, आर्थिक नुकसान हुआ हो, आपसी सम्‍बन्‍धों में कोई तनाव हो गया हो, डर लगता हो, सपने आते हों, भ्रम होता हो आदि। इस प्रकार अब मरीज के परचे पर उसकी बीमारी और शारीरिक दिक्‍कतों की हिस्‍ट्री के साथ, उसकी मानसिक स्थिति की हिस्‍ट्री भी आ चुकी होती है, इसके बाद अगर किसी केस में साइकोथैरेपी की जरूरत है तो उसे साइकोलॉजिस्‍ट के पास भेज दिया जाता है। इसके बाद एक सॉफ्टवेयर पर मरीज की हिस्‍ट्री डालकर एनालिसिस की जाती है, और कुछ दवाओं के समूह का चुनाव किया जाता है।

इसके बाद तीसरे चरण में मरीज को फाइनली चीफ कन्‍सल्‍टेंट डॉ गिरीश गुप्‍ता के केबिन में भेज दिया जाता है। डॉ गिरीश गुप्‍ता मरीज के परचे पर दर्ज उसके रोग और उसकी मानसिक स्थिति की हिस्‍ट्री, उसके लिए लिखी गयींं दवाओं का अध्‍ययन करते हैं, फि‍र अगर मरीज से कुछ और पूछना हुआ तो पूछते हैं, इसके साथ ही शॉर्ट लिस्‍ट हुई दवाओं का उस मरीज की हिस्‍ट्री के अनुसार अध्‍ययन कर सबसे कारगर दवा का चुनाव करते हैं, परचे में सजेस्‍ट की गयी दवा से अगर असहमति है तो दूसरे चरण वाले चिकित्‍सक के साथ डिस्‍कशन करते हैं, इसके बाद दवा फाइनल करते हैं।   

फॉलोअप वाले केस में

मरीज चिकित्‍सक के पास पहुंचता है और अपना हाल बताता है, यदि लाभ हुआ है तो ठीक, अगर लाभ नहीं हुआ है, या आंशिक हुआ है, या फि‍र लक्षणों में तो हुआ है लेकिन जांच रिपोर्ट में रिजल्‍ट अच्‍छा नहीं आया है, तो इसे अधूरा फायदा मानते हुए फि‍र से मरीज को रिपर्टराइजेशन के लिए चिकित्‍सक के पास भेज दिया जाता है, जहां एक बार फि‍र से चिकित्‍सक द्वारा मरीज की मानसिक स्थिति, विचारों, पसंद, नापसंद, सपने, विचार आदि के बारे में पूछा जाता है, और दवा लिखकर फाइनली चीफ कन्‍सल्‍टेंट डॉ गिरीश गुप्‍ता के पास भेजा जाता है। डॉ गुप्‍ता फि‍र से पूरा केस रिव्‍यू कर उसमें आवश्‍यक बातों की जानकारी लेते हुए डिस्‍कशन के बाद दवा फाइनल कर देते हैं। इसके पश्‍चात रिसर्च के दृष्टिकोण से इस पूरी प्रक्रिया का अध्‍ययन करते हुए डेटा तैयार किया जाता है, जिसमें किन लक्षणों में कौन सी दवा दी गयी, कितना फायदा हुआ, नहीं हुआ इन सारे आंकड़ों को फीड किया जाता है। डॉ गिरीश गुप्‍ता की टीम में डॉ गौरांग गुप्‍ता, डॉ दिलीप पाण्‍डेय, डॉ स्‍वीटी सावलानी, डॉ तनिमा गुप्‍ता, डॉ नवीन गुप्‍ता आदि शामिल हैं।