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आखिर क्‍यों नहीं निर्विरोध हो पाये इस बार एसजीपीजीआई में फैकल्‍टी फोरम के चुनाव

-अपने प्रमोशन, वेतन जैसे अधिकारों के लिए सरकार से दो-दो हाथ करने के मूड में हैं चिकित्‍सक

लखनऊ। राजधानी लखनऊ स्थित संजय गांधी पीजीआई में होने वाले फैकल्‍टी फोरम की एग्‍जीक्‍यूटिव काउंसिल के लिए इस बार चुनाव मतदान से हो रहा है। पिछली बार हालांकि यहां मतदान होने की नौबत नहीं आयी थी। ज्‍यादातर ऐसा ही हुआ है कि आपसी सहमति से निर्विरोध चुनाव सम्‍पन्‍न हुआ है। इस बार अपने हक के लिए सरकार तक अपनी आवाज बुलंद तरीके से पहुंचाने का जोश अभी से है, इस जोश की शुरुआत चुनाव से हो चुकी है।

इस बार मतदान की नौबत है क्‍योंकि किसी भी पद पर उम्‍मीदवार अकेला नहीं है। अध्‍यक्ष, सचिव और कोषाध्‍यक्ष पदों पर दो-दो तथा एग्‍जीक्‍यूटिव कमेटी के छह पदों पर आठ उम्‍मीदवार हैं। आखिर ऐसा इस बार क्‍या हुआ जो मतदान की नौबत आ गयी। इसके पीछे की वजह जानने के लिए जब पड़ताल की गयी तो सामने आया कि फैकल्‍टी में अपने वेतन, प्रमोशन आदि को लेकर रोष व्‍याप्‍त है। प्रमोशन हो गये, क्रियान्‍वयन नहीं हुआ, दिन, महीने, साल गुजरते जा रहे हैं, फैकल्‍टी को अपनी तरक्‍की का इंतजार है। सूत्र बताते हैं कि इसके लिए इस बार तय हुआ कि अपनी आवाज उठानी है तो जोरदार तरीके से। बताया जाता है कि इस चुनाव के बाद अपने हक की लड़ाई जोरदार तरीके से लड़ने की तैयारी की जा रही है।

इस बारे में सचिव पद के एक प्रत्‍याशी डॉ संदीप साहू का कहना है कि हमारे संस्‍थान की पहचान देश ही नही विदेश तक में है, जाहिर है यह पहचान यहां के काम से ही तो है, ऐसे में हम फैकल्‍टी की उपेक्षा किया जाना कहां तक उचित है। फैकल्‍टी मानसिक रूप से परेशान है, हमारे छोटे-छोटे कामों में शासन रुकावट डाल रहा है। उन्‍होंने कहा कि उदाहरण के लिए 42 चिकित्‍सकों के प्रमोशन के लिए साक्षात्‍कार दो साल पहले हो चुका है लेकिन अभी तक शासन से उनका अनुमोदन नहीं हो पाया है, इसी प्रकार एम्‍स दिल्‍ली के बराबर वेतन देने की बात तो तय हुई लेकिन अभी तक दिया नहीं गया आखिर क्‍यों।

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उन्‍होंने कहा कि चिकित्‍सक अपना दिमाग मरीज की चिकित्‍सा, रिसर्च जैसे कार्यों में लगाये अथवा अपने साथ हो रहे इस अन्‍याय के बारे में सोचकर चिंतित हो। उन्‍होंने कहा कि हमें इस बात से कोई दिक्‍कत नहीं है कि किसी दूसरे को हमारे बराबर आप क्‍यों दे रहे हैं लेकिन हमारे लिए जो तय हुआ है एम्‍स के बराबर देने का, कम से कम वह तो दीजिये। उन्‍होंने कहा कि इसी का नतीजा है कि चिकित्‍सक संस्‍थान को छोड़कर दूसरी जगह जाने पर मजबूर होते हैं, हालांकि यह स्थिति मरीज के हित में नहीं है, क्‍योंकि जिस स्‍तर का इलाज यहां कम दरों में उपलब्‍ध हो जाता है, वह निजी क्षेत्र में संभव नहीं है।