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भावनाविहीन देखभाल माता और शिशु में देती हैं अनेक प्रकार की बीमारियां

प्रेग्नेंसी के बाद शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही भावनात्मक रूप से भी रखें मां-बच्चे का ध्यान

लखनऊ। गर्भावस्‍था से लेकर शिशु के जन्‍म के एक साल बाद तक मां और बच्‍चे की ठीक प्रकार से शारीरिक के साथ भावनात्‍मक रूप से देखभाल बहुत आवश्‍यक है अन्‍यथा बच्‍चे में आगे चलकर अनेक प्रकार की बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है। किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के साइक्रियाटिक  विभाग में प्रसवपूर्व मानसिक स्वास्थ्य विकार (parinatal mental health disorders)  विषय पर एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया

 

इस कार्यशाला में ऑस्ट्रेलिया के सिडनी की साइक्रियाटिस्‍ट डॉ मैरी पॉल ऑस्टीन एवं डॉ0 हरीश कालरा ने केजीएमयू के चिकित्सकों एवं छात्र-छात्राओं को प्रेग्नेंसी के दौरान बच्चे के जन्म से एक साल तक मां और बच्चे की मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं एवं बीमारियों की पहचान एवं उपचार के बारे में विस्तार से बताया।

 

कार्यशाला में कुलपति प्रोफेसर एमएलबी भट्ट बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित रहे। इस अवसर पर कुलपति ने आधुनिक रिसर्च का हवाला देते हुए बताया कि प्रेग्नेंसी के बाद मां की मानसिक अवस्था एवं भावनात्मक अवस्था मां-बच्चे के स्वास्थ्य एवं उनकी बौद्धिक क्षमता पर प्रभाव डालती है। उन्होंने बताया कि जिन बच्चों के भावनात्मक एवं मानसिक स्वास्थ्य की पर्याप्त देखभाल होती है, उनकी मानसिक परिस्थिति के साथ साथ ही आगे की उम्र में होने वाली गंभीर शारीरिक बीमारियों जैसे कि डायबीटिज और ब्लडप्रेशर इत्यादि होने  की संभावना कम हो जाती है।

 

कुलपति ने बताया कि गर्भावस्था के पहले एवं उसके बाद महिलाओं के शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान देने की आवश्यक्ता होती है। उन्होंने बताया कि डिलीवरी के बाद महिलाओं को भावनात्मक रूप से भी सही उपचार की जरूरत होती है। उन्होंने बताया कि भारतीय परिवेश में अक्सर महिलाओं द्वारा कन्या के जन्म के बाद परिवार द्वारा महिलाओं के स्वास्थ्य पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता, जिस कारण महिलाओं में इस बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। उन्होंने कहा कि इसके प्रति देश के कई हिस्सों में आज भी जागरूकता की कमी है।

 

साइक्रियाटिक डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर पीके दलाल ने बताया कि बच्चे के जन्म लेने के शुरुआती समय के साथ ही उसके शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही अगर उसका लालन-पालन भावनात्मक रूप से न किया जाए तो उसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है और उसे कई प्रकार की गंभीर बीमारियों के होने की आशंका बनी रहती है।

 

डॉ दलाल के मुताबिक, जन्म लेने वाले बच्चे के शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही उसका मानसिक स्वास्थ्य भी एक अह्म पहलू है, जिसपर ध्यान दिए जाने की आवश्यक्ता है। उन्होंने बताया कि अगर मां का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तो बच्चे के लालन-पालन पर प्रभाव पड़ता है, जिसका असर उसके मानसिक एवं शारीरिक विकास पर पड़ता है। उन्होंने वर्ल्‍ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि 50 फीसदी महिलाओं में गर्भावस्था के बाद पोस्ट पार्टम ब्लूज़  (Post Partum Blues) डिप्रेशन और घबराहट के लक्षण पाए जाते हैं, जिसपर ध्यान न दिए जाने पर इनमें से 20 फीसदी महिलाओं को डिप्रेशन होने की संभावना प्रबल हो जाती है, इसके साथ ही इन महिलाओं में से पवाइंट 02 फीसदी को साइकोसिस नामक बीमारी होने का खतरा बना रहता है।

 

इस अवसर पर सिडनी की साइक्रियाटिस्‍ट डॉ मैरी पॉल ऑस्टीन ने जानकारी दी कि आधुनिक रिसर्च में यह पाया गया है कि जिन बच्चों की शुरूआती उम्र में बेहतर देखभाल होती है और जिनको किसी विपरित मानसिक परिस्थिति से न गुजरना पड़ा हो, यानि कि वह बच्चे जो किसी भी प्रकार के शारीरिक, मानसिक एवं यौन प्रताड़ना से सुरक्षित रहते हैं। वह विभिन्न प्रकार की भावनात्मक एवं मानसिक समस्याओं व बीमारियों से बचे रहते हैं। ऐसे बच्चों की बौद्धिक क्षमता ज्यादा बेहतर ढंग से विकसित होती है। इस कार्यशाला में मुख्य रूप से प्रोफेसर आरके गोयल, प्रोफेसर मधुमति गोयल, प्रोफेसर जीपी सिंह, प्रोफेसर विवेक अग्रवाल, प्रोफेसर उमा सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर आदर्श त्रिपाठी मौजूद रहे।