एनटीपीसी ने 11 करोड़ 29 लाख देने का किया ऐलान, लेकिन ये करोड़ों रुपये भी तैयार हो चुकी बर्न यूनिट नहीं चलवा पायेंगे
लखनऊ। किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) स्थित बर्नयूनिट के उच्चीकरण के लिए एनटीपीसी, नई दिल्ली ने 11 करोड़ 29 लाख रुपये की वित्तीय सहायता देने के लिए केजीएमयू के साथ एमओयू पर आज हस्ताक्षर किये। एनटीपीसी ने यह सहायता सीएसआर के अंतर्गत दिये जाने की घोषणा की है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि ज्रो करीब 10 करोड़ रुपये की लागत से जो बर्नयूनिट यहां तैयार हुई है उसे अब तक शुरू नहीं किया जा सका है। यानी खर्च करोड़ों रुपये भले ही हो गये हों लेकिन आम मरीज तक इसका लाभ अभी भी नहीं मिल सका है। अब आपको बताते हैं कि यूनिट शुरू क्यों नहीं पायी, सूत्रों की मानें तो इसकी वजह भी सिर्फ इतनी है कि तृतीय श्रेणी और चतुर्थ श्रेणी के पदों की स्वीकृति शासन से नहीं मिली है।
आपको बता दें कि दो दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी इस प्रतिष्ठित संस्थान को एक अदद बर्न यूनिट नहीं मिल पायी है। 1997 से इसकी योजना की बात होते-होते 2018 आ गया लेकिन बर्न यूनिट नहीं शुरू हो सकी। पिछले साल सितम्बर 2017 में भी विभागीय मंत्री आशुतोष टंडन ने इसे एक माह में शुरू करने के निर्देश दिये थे, इस बात को भी साल भर हो रहा है लेकिन अभी भी बर्न यूनिट की शुरुआत कब होगी यह कहा नहीं जा सकता।
आपको याद दिला दें कि पिछले साल नवम्बर में एनटीपीसी की ऊंचाहार इकाई में ब्वॉयलर फटने के बाद राजधानी लखनऊ जब मरीजों को लाया गया था तब जिन मरीजों को केजीएमयू जैसे संस्थान में लाया गया उनमें गंभीर घायल वाले लोगों को यहां भर्ती ही नहीं किया जा सका था क्योंकि यहां बर्न यूनिट ही नहीं थी। जबकि केजीएमयू के सामने ही एक निजी अस्पताल स्थित बर्न यूनिट में मरीजों को भर्ती किया गया था। थोड़ी बहुत सुविधा डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी (सिविल) अस्पताल में होने से कुछ मरीज वहां भर्ती किये गये तथा कुछ संजय गांधी पीजीआई भेजे गये थे।
ऐसा लगता है कि एनटीपीसी को यह त्रासदी याद रही होगी और यह भी याद रहा होगा कि केजीएमयू में बर्न यूनिट न होने से ही उनके अधिकारी और कर्मचारी जो घायल हुए थे उन्हें प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराकर लाखों रुपये देकर इलाज कराया गया था। लेकिन 11 करोड़ 29 लाख रुपये की सहायता देने के लिए हुआ करार भी बर्न यूनिट तो नहीं खुलवा पायेगा क्योंकि उसमें कमी कर्मचारियों की है न कि किन्हीं और दूसरी वस्तुओं की।
शासन के ढीले रवैये का ही परिणाम है कि ज्रब डॉक्टर, नर्स आदि सभी की पोस्ट स्वीकृत हो गयीं तो आखिर तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पद स्वीकृत क्यों नहीं हुए। यानी दूसरे अर्थों में देखा जाये जो करोड़ों रुपये इस यूनिट को तैयार करने में खर्च हुए हैं, उसका वर्तमान समय में लाभ इस छोटी सी खामी के कारण नहीं मिल पा रहा है, यानी यह कुछ ऐसा ही है कि हाथी निकल गया, दुम बाकी है।