अकेले भारत में ही प्रतिवर्ष पौने चार लाख बच्चों की मौत का कारण बनता है निमोनिया
स्नेहलता
लखनऊ। भारत सहित पूरे विश्व में निमोनिया 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मौत का एक प्रमुख कारण है। भारत की अगर बात करें तो यहां 3,70,000 बच्चों की मौत निमोनिया के कारण हो जाती है, इनमें करीब आधी संख्या उत्तर प्रदेश की है। इस सम्बन्ध में बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के सहयोग से किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्व विद्यालय की बाल रोग विशेषज्ञ प्रो शैली अवस्थी ने एक स्टडी की, इस स्टडी का जो परिणाम हासिल हुआ वह चौंकाने वाला था। साल भर की स्टडी के बाद प्रो शैली ने पाया कि रीट्रेनिंग के चलते माताओं ने भी निमोनिया के लक्षण पहचाने और स्वास्थ्य कर्मियों की मदद से निमोनिया से पीड़ित बच्चों के सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर पहुंचने की दर पांच गुनी बढ़ गयी। नतीजा यह रहा कि निमोनिया के शिकार बच्चों को समय रहते सही सलाह व इलाज मिलने से मृत्यु दर में भी कमी आयी है। इस अध्ययन का लाभ पूरे उत्तर प्रदेश को मिले इसके लिए स्टडी की रिपोर्ट को भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को 14 अगस्त को सौंपा जायेगा।
प्रो अवस्थी ने यह स्टडी राजधानी लखनऊ के ठेठ ग्रामीण क्षेत्रों के 8 ब्लॉक के 807 गांवों में 15,50,842 आबादी के साथ एक व्यावहारिक परीक्षण के माध्यम से की। इस परीक्षण में पाया कि करीब एक चौथाई संख्या में बच्चे निमोनिया से पीड़ित थे, इनमें से तीन चौथाई ने डॉक्टर से सम्पर्क किया। जिन बच्चों को डॉक्टर के पास ले जाया गया उनमें 95 प्रतिशत को प्राइवेट चिकित्सकों के पास लोग ले गये, इन चिकित्सकों में डिग्रीधारक और झोलाछाप दोनों तरह के चिकित्सक हो सकते हैं।
प्रो अवस्थी ने बताया कि 95 प्रतिशत निजी क्लीनिकों में ले जाने के पीछे का कारण लोगों का सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों के प्रति उदासीन होना था। परिणामस्वरूप निमोनिया के कारण उच्च मृत्यु दर हुई। लोगों में उदासीनता के पीछे स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की अनुपलब्धता के साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं का स्तरहीन होना पाया। प्रो अवस्थी ने बताया कि उन्होंने इसके उपाय के लिए सर्वप्रथम निमोनिया की पहचान के लिए 60 डॉक्टर, 350 एएनएम और 1500 आशाओं को प्रशिक्षित किया।
उन्होंने बताया कि रीट्रेनिंग एक नया तरीका है। उन्होंने बताया कि डॉक्टर, एएनएम और आशाओं को प्रशिक्षण के साथ ही 800 से ज्यादा गांवों और सरकारी सुविधाओं वाली जगहों पर निमोनिया को पहचानने और उसका समय पर इलाज कराने की जागरूकता वाले पोस्टर लगवाये गये। उन्होंने एएनएम की सहायता से सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र / प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में निमोनिया के बारे में वीडियो संदेश सत्र भी आयोजित किए। इसके साथ ही एएनएम और आशाओं को भी बताया कि वे अपने स्तर से ऐसे केस देखने पर उनके घरवालों को इसकी जानकारी दें और निमोनिया मो पहचानने के तरीके बताये। उन्होंने उन्हें निमोनिया के मामलों से वास्तविक जीवन कथाएं बताईं जिनमें अच्छे और बुरे दोनों परिणाम थे।
आशाओं को ग्रामीण स्वास्थ्य और पोषण दिवस के दौरान महिलाओं के मानकीकृत तरीके से पोस्टर को समझाने के लिए प्रशिक्षित किया गया था। इससे निमोनिया के लक्षणों के बारे में ज्ञान बढ़ गया। प्रो अवस्थी ने बताया कि इन सब प्रयासों को नतीजा यह निकला कि पहले सिर्फ 24 प्रतिशत माताएं ऐसी थीं जिन्हें निमोनिया होने के लक्षणों के बारे में पता था साल भर बाद यह प्रतिशत बढ़कर 77 हो गया।
प्रो शैली ने बताया कि सही दवाओं की आसानी से उपलब्धता हो जाये इसके लिए विशेष रूप से पैक किए गए निमोनिया ड्रग किट के साथ स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान कीं, इस किट के साथ एक चित्रमय कार्ड भी था जिसमें डॉक्टरों द्वारा लक्षण और उपचार कार्यक्रम की व्याख्या की गयी थी। इन कार्डों को माताएं अपने साथ ले गयीं जिससे उन्हें निमोनिया के लक्षण पहचानने आदि में मदद मिले। इन प्रयासों ने लोगों का सरकार के सिस्टम में अपना विश्वास बढ़ाया। इन प्रयासों के 1 वर्ष के अंत में, निमोनिया होने वाले बच्चों को अस्पताल लाने वालों की संख्या पांच गुना बढ़ गयी।
प्रो अवस्थी का मानना है कि पोस्टर्स को सिर्फ स्वास्थ्य सुविधाओं, चित्रकला दीवारों और पैम्फलेट वितरित करने पर वांछित प्रभाव नहीं मिलेगा, जो कि वर्तमान में किया जा रहा है। उन्होंने आशा द्वारा मानकीकृत तरीके से माताओं के छोटे समूहों में स्वास्थ्य पोस्टर के बारे में उसकी व्याख्या करने को जरूरी बताया। यह दरअसल अध्यापन के सिद्धांतों पर आधारित है। इसलिए इसका असर ज्यादा पड़ता है।
स्टडी में प्रो शैली अवस्थी के साथ केजीएमयू की प्रो मोनिका अग्रवाल और संजय गांधी पीजीआई के प्रो सीएम पाण्डेय इस स्टडी में उनके सहयोगी रहे। उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग का सहयोग रहा। परियोजना के माध्यम से न्यूमोनिया प्रबंधन इकाइयों और निमोनिया प्रबंधन कॉर्नर की स्थापना सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में की गई थीं।अब सरकारी डॉक्टरों ने बच्चों को वहां देखना शुरू कर दिया है।