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फेफड़े का हर धब्‍बा टीबी का ही नहीं, आईएलडी का भी हो सकता है…

-आईएलडी के धब्‍बे की पहचान हाई रेजूलेशन सीटी थोरेक्‍स से ही संभव
वर्ल्‍ड रेअर डिजीज डे पर दी जानकारी, रेअर डिजीज है आईएलडी
वर्ल्‍ड रेअर‍ डिजीज डे पर पत्रकार वार्ता में आईएलडी के बारे में जानकारी देते डॉ सूर्यकांत

सेहत टाइम्‍स ब्‍यूरो

लखनऊ। इंटरस्‍टीशियल लंग डिजीज (आईएलडी) एक बीमारी नहीं यह 200 बीमारियों का समूह है, खास बात यह है कि इसके लक्षण बहुत कुछ टीबी के लक्षणों से मिलते हैं, इसलिए अनेक बार ऐसा होता है कि होती आईएलडी बीमारी है, और मरीज को दवा टीबी की चलायी जाती है, नतीजा यह होता है कि बीमारी ठीक नहीं होती है। इसलिए आवश्‍यक यह है कि व्‍यक्ति तो जागरूक हों ही, मुख्‍यत: चिकित्‍सकों को बीमारी की डायग्‍नोसिस सही ढंग से करनी है। इसकी पहचान में ही सावधानी बरती जाये, और यह सावधानी चिकित्‍सकों को ही बरतनी होगी। आईएलडी की सटीक पहचान के लिए जरूरी है कि मरीज की हाई रेजूलेशन सीटी थोरेक्‍स जांच करवायी जाये। देखा गया है कि आईएलडी के जो मरीज आते हैं उनमें करीब 67 प्रतिशत मरीज पहले टीबी का इलाज करा चुके होते हैं।

यह जानकारी वर्ल्‍ड रेयर डिजीज डे के मौके पर आयोजित एक पत्रकार वार्ता में केजीएमयू के रेस्‍पाइरेटरी-पल्‍मोनरी मेडिसिन विभाग के विभागाध्‍यक्ष प्रो सूर्यकांत ने दी। उन्‍होंने कहा कि हाई रेजूलेशन सीटी थोरेक्‍स जांच इसलिए जरूरी है कि साधारण एक्‍सरे और साधारण सीटी स्‍कैन में फेफड़े पर धब्‍बा तो दिखायी देता है लेकिन यह धब्‍बा टीबी का है या आईएलडी का इसकी पहचान नहीं हो पाती है, आईएलडी में फेफड़े पर होने वाले धब्‍बे में फाइब्रोसिस जिसे साधारण भाषा में समझा जाये तो रफू जैसे निशान होते हैं। उन्‍होंने बताया कि यह दो स्‍टेज में देखी गयी है, रेटिकुलर शैडोज और हनी कॉम शैडोज। इसकी शुरुआत लंग के निचले हिस्‍से से होती है जो कि बाद में लंग के चारों ओर और अंत में लंग की झिल्‍ली को अपनी चपेट में ले लेती है।

उन्‍होंने कहा कि अगर लक्षणों की बात करें तो आईएलडी और टीबी दोनों में शुरुआत सूखी खांसी से होती है, फि‍र सांस फूलना, फि‍र भूख कम लगना तथा बाद में वजन कम होने लगता है, लेकिन एक फर्क यह है कि टीबी में मरीज को बुखार भी आता है जबकि आईएलडी में ऐसा नहीं देखा गया है। उन्‍होंने बताया कि आईएलडी बीमारी समाप्‍त करने की अभी तक कोई दवा नहीं आयी है, बस इसके लिए दो ही दवा बनी हैं जिनसे मरीज को राहत पहुंचाने की कोशिश की जाती है।

डॉ सूर्यकांत ने बताया कि इसके कारणों में दो तरह के हैं एक ज्ञात हैं और दूसरे अज्ञात हैं, ज्ञात कारणों में ऐसे कण जो सांस के द्वारा फेफड़े में पहुंच जाते हैं, इनमें पक्षी के पंखों, कूलर का पानी न बदलने से होने होने वाली फंगस, आरा मशीन से निकलने वाला बुरादा, होली के रंगों में मिला केमिकल, अनाजों से निकलने वाली धूल, सोना गलाने के समय निकलने वाले कण, बोरे के रेशों से निकलने वाले कण, धूम्रपान आदि शामिल हैं।

देखें वीडियो- वर्ल्‍ड रेअर डिजीज डे पर आईएलडी के बारे में जानकारी दे रहे हैं प्रो सूर्यकांत

डॉ सूर्यकांत ने बताया कि इसके उपचार में सहायक जो प्रयोग किये जा रहे हैं उनमें प्राणायाम भी शामिल है, लेकिन अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि इससे लाभ होगा ही होगा, चूंकि इसे करने में कोई बुराई नहीं है इसलिए प्राणायाम किया जा सकता है, उन्‍होंने एक महत्‍वपूर्ण जानकारी देते हुए बताया कि प्राणायाम सिर्फ तब नहीं करना चाहिये जब खांसी में खून आ रहा हो। यह बीमारी महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में ज्‍यादा पायी जाती है।