-क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता के सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ ‘फेदर्स’ का उद्घाटन
सेहत टाइम्स
लखनऊ। बचपन से ही पापा को चिकित्सक के रूप में मैं देखती थी, जब 3-4 साल की थी तभी मुझे लगा कि मुझे बड़े होकर डॉक्टर बनना है और 9वीं-10वीं कक्षा तक तक आते-आते यह क्लियर हो गया कि मुझे मेडिकल की लाइन में जाना है। जब और गहराई से सोचा तो यह लगा कि मेरे लिए साइकोलॉजी की फील्ड में जाना ज्यादा बेहतर है क्योंकि इसमें मरीज के साथ भावनात्मक रूप से जुड़कर उसके अंतर्मन की बात जानकर उसका इलाज किया जाता है, जो मुझे ज्यादा अच्छा लगता है।
यह बात क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता ने सेहत टाइम्स से विशेष बातचीत में कही। ज्ञात हो सावनी के पिता गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च के संस्थापक व चीफ कन्सल्टेंट डॉ गिरीश गुप्ता एक प्रसिद्ध होम्यो चिकित्सक हैं जिन्होंने होम्योपैथिक दवाओं से अनेक असाध्य रोगों पर रिसर्च की है। अलीगंज स्थित गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च भवन में ही एक छोटे से समारोह के बीच सावनी गुप्ता के क्लीनिक सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ ‘फेदर्स’ का आज 3 अप्रैल को उद्घाटन हुआ है। इसका उद्घाटन डाइरेक्टर एआईबीएएस एंड हेड (क्लीनिकल साइकोलॉजी) एमिटी यूनिवर्सिटी प्रो एसजेडएच ज़ैदी ने किया।
सावनी ने कहा कि साधारणतय रोगी डॉक्टर के पास जाता है डॉक्टर उसका मर्ज पूछता है और दवा लिख देता है लेकिन मनोरोगी का इलाज करने के लिए उसकी पूरी हिस्ट्री जाननी पड़ती है। बचपन तक की घटनाओं की गहराई में जाना पड़ता है। उदाहरण के रूप में जैसे कि किसी मरीज को डिप्रेशन है, तो पहले तो लक्षणों के आधार पर यह तय किया जाता है कि डिप्रेशन हैं या नहीं, डिप्रेशन है तो क्यों है, इसके कारणों को जानने के लिए मरीज से बहुत कनेक्ट होना पड़ता है। उसकी परिस्थितियों को जानकर यह देखा जाता है कि उसे क्या-क्या चीजें असर डाल सकती हैं और उसका उस पर क्या असर होगा। उन्होंने बताया कि कई बार माता-पिता के बीच कोई झगड़ा होता है तो उसका असर बच्चे पर सीधा पड़ता है।
उन्होंने कहा कि मेरे पास कई माता-पिता अपने बच्चे की परेशानी को लेकर आते हैं तो पहले देखती हूं कि माता-पिता का बच्चे के प्रति व्यवहार कैसा है क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि माता-पिता बच्चे को मोबाइल पकड़ा देते हैं और अपने कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं, बच्चे को समय नहीं देते हैं। ऐसी स्थिति में इलाज की जरूरत बच्चे को नहीं, बल्कि माता-पिता को अपना व्यवहार बदलने की जरूरत है।
उन्होंने बताया कि बहुत से लोगों की सोच ऐसी होती है कि अगर हम मानसिक समस्या लेकर मनोवैज्ञानिक के पास जायेंगे तो लोग हमें मानसिक रोगी समझेंगे, इस सोच को बदलने की जरूरत है, जिससे मरीज को चिकित्सक के पास जाने में संकोच न हो। सावनी ने बताया कि कुछ समस्याएं छोटी होती हैं जिनका निराकरण काउंसलिंग से हो जाता है। काउंसिलिंग शॉर्ट टर्म होती है, लेकिन अगर रोग बढ़ गया है तो मरीज को थेरेपी देनी होती है जो कि लम्बे समय तक चलती है, ये सारी बातें मरीज की परेशानी पर निर्भर करती हैं।
हाल ही में राजस्थान के दौसा में महिला डॉक्टर द्वारा आत्महत्या किये जाने के केस के सम्बन्ध में बात करने पर सावनी ने कहा कि निश्चित रूप से महिला डॉक्टर के मन में बहुत ट्रॉमा रहा होगा जो आत्महत्या का फैसला लिया। लेकिन आत्महत्या किसी समस्या का हल नहीं है, ऐसे विचार मन मन में न आयें इसके लिए कोशिश करनी चाहिये। उन्होंने कहा कि डॉक्टरी का पेशा हो या कोई भी ऐसा पेशा जहां थोड़ा सा भी प्रेशर या तनाव हो तो ऐसे लोगों को अपना तनाव कम करने के लिए अपनी पसंदीदा कार्य जैसे योगा, मेडिटेशन, जिम, पेंटिंग या जो भी करना अच्छा लगता हो, वह करना चाहिये। इससे कार्य का तनाव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि अपने कार्य का तनाव कार्यस्थल पर ही छोड़ना चाहिए उसे लेकर घर नहीं ले जाना चाहिए।