-हेल्थसिटी विस्तार हॉस्पिटल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ निरंजन सिंह से बच्चों में होने वाले अस्थमा पर विशेष वार्ता

सेहत टाइम्स
लखनऊ। इन्हेलर के इस्तेमाल को लेकर लोगों में कई प्रकार के भ्रम हैं, जिसकी वजह से लोगों को लगता है कि इसका इस्तेमाल न किया जाये लेकिन क्या आप जानते हैं कि इन्हेलर के द्वारा दवा लेने और टेबलेट या सिरप के रूप में दवा लेने में काफी फर्क है, टेबलेट की अपेक्षा इन्हेलर में दवा 1000 गुना कम लेनी होती है, जिससे दवा के साइड इफेक्ट भी 1000 गुना कम होते हैं, यही नहीं, यह सोचना कि इन्हेलर की आदत लग जाती है, यह भी सच नहीं है, जरूरत समाप्त होने के बाद इसे आराम से छोड़ा जा सकता है।
यह कहना है गोमती नगर विस्तार स्थित हेल्थ सिटी विस्तार मल्टीस्पेशियलिटी हॉस्पिटल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ निरंजन सिंह का। ‘सेहत टाइम्स’ के साथ विशेष वार्ता में डॉ निरंजन ने वे सभी बातें बतायीं जो अस्थमा से ग्रस्त छोटे से बड़े बच्चों में होती हैं, तथा उनसे किस प्रकार निपट कर बच्चे को राहत दी जा सकती है। उन्होंने कहा कि आंकड़े बताते हैं कि भारत में 14 वर्ष तक की आयु वाले 3.3 प्रतिशत बच्चों को दमा होता है जबकि वैश्विक स्तर पर यह प्रतिशत 4 से 7 है।
डॉ निरंजन ने बताया कि सबसे पहले तो आवश्यक यह है कि बच्चे के अस्थमा को पहचाना जाये, सामान्यत: रोग की पहचान के लिए टेस्ट होता है, इसमें भी पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट (पीएफटी) से अस्थमा की पहचान की जाती है लेकिन अगर बच्चे की आयु 6 वर्ष तक की है तो इसकी डायग्नोसिस क्लीनिकली होती है। अगर बच्चे को बार-बार खांसी आये, सांस फूले, पसली चले, सांस लेने में सीटी जैसी आवाज आये तो यह अस्थमा हो सकता है, ऐसे में चाहिये कि उसे बाल रोग विशेषज्ञ को दिखायें। डॉक्टर स्टेथोस्कोप (आला) लगाकर फेफड़े की आवाज सुनकर और अन्य लक्षणों से अस्थमा की पहचान कर लेता है। उन्होंने कहा कि छह वर्ष से ऊपर बच्चों का पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट करके अस्थमा की पहचान की जाती है।
डॉ निरंजन ने बताया कि उपचार की बात करें तो सर्वोत्तम होता है इन्हेलर से दवा देना। इसके तहत एक छोटे से पम्प के माध्यम से बच्चे के मुंह से दवा दी जाती है जो सीधे फेफड़ों तक पहुंचती है, और अपना काम शुरू कर देती है, नतीजा यह है कि तुरंत आराम आना प्रारम्भ हो जाता है। डॉ निरंजन कहते हैं कि मेरे पास आने वाले कई बच्चों के माता-पिता इन्हेलर से दवा देने में हिचकते हैं, उनका कहना होता है कि कहीं इसकी आदत न पड़ जाये। ऐसे लोगों से मैं कहना चाहता हूं कि यह भ्रम अपने मन से निकाल दीजिये। इन्हेलर की आदत नहीं लगती है, बल्कि यह सबसे ज्यादा प्रभावकारी होता है। इसमें दवा मिलीग्राम के बजाय माइक्रोग्राम में दी जाती है, जिससे कम दवा शरीर में जाती है जिससे साइड इफेक्ट भी कम होते हैं। बच्चा जब ठीक हो जाता है तो इसका डोज कम करके दवा बंद की जा सकती है।


डॉ निरंजन बताते हैं यह एक सामान्य और सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला सवाल है कि अस्थमा जड़ से ठीक होता है या नहीं, इसकी दवा कितने समय तक लेनी पड़ती है, इस बारे में कहा जा सकता है कि यह निर्भर करता है अस्थमा की शिकायत बच्चे को क्यों हुई, अगर बच्चे के नाना, दादा, माता-पिता को अस्थमा की शिकायत है यानी यह जेनेटिक है, तो इसके पूरी तरह से ठीक होने की संभावना कम होगी, इसी प्रकार अगर बच्चे को किसी विशेष चीज जैसे धूल, धुआं, तेज सुगंध आदि से एलर्जी है तो भी इन चीजों के सम्पर्क में आने पर बार-बार अस्थमा होने की संभावना होगी। लेकिन अगर ये दोनों बातें नहीं हैं तो फिर कुछ समय इलाज के बाद दवा बंद कर दी जाती है।
कैसे कर सकते हैं बचाव
उन्होंने कहा कि कुछ बच्चों को मौसम बदलने पर अस्थमा हो जाता है इसे सीजनल अस्थमा कहते हैं। ऐसे में यह ध्यान रखें कि मौसम बदलने के दो सप्ताह पहले से दवा लेना शुरू कर देना चाहिये ऐसा करने से मौसम के बदलाव के समय बच्चे को राहत रहेगी। डॉ निरंजन ने बताया कि इसके अतिरिक्त जिन बच्चों को अक्सर अस्थमा हो जाता है उन्हें धूल, धुआं, तेज सुगंध से बचाकर रखना चाहिये। इसी प्रकार एसी का फिल्टर सप्ताह में एक बार साफ करें, झाड़ू के बजाय पोंछा लगायें, कारपेट, रुई वाली चीजें जैसे कम्बल का प्रयोग कम करें, इसमें धूल के महीन कण जम जाते हैं, जो सांस के साथ अंदर जाते हैं, कम्बल का इस्तेमाल करना ही पड़े तो इस पर कवर अवश्य लगा लें।
मच्छररोधी साधनों से बड़ों से ज्यादा प्रभावित होते हैं बच्चे
उन्होंने बताया कि आजकल एक चीज बहुत कॉमन है वह है मच्छर से बचने के लिए अपनाये जाने वाले साधन। अगरबत्ती आदि से धुआं होता है, जो कि नुकसानदायक है लेकिन मच्छर को भगाने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले लिक्विड और ज्यादा नुकसानदायक हैं क्योंकि धुआं तो भले ही इसमें कम होता है लेकिन इसका केमिकल दिमाग पर असर करता है। मच्छर भगाने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले तरीकों से बच्चे ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि ये चीजें ज्यादातर नीचे (जमीन से कम ऊंचाई पर) लगायी जाती हैं, ऐसे में बच्चे की हाइट कम होने की वजह से वह ज्यादा इन्हेल करता है जबकि बड़ों की हाइट ज्यादा होने के कारण वे कम इन्हेल करते हैं।
समय पर रोग की पहचान करें
डॉ निरंजन ने कहा कि मेरा यह अनुभव है, और मैं यहां हेल्थसिटी विस्तार हॉस्पिटल में भी देखता हूं कि बहुत से माता-पिता या अभिभावक शुरुआत में रोग को पहचान नहीं पाते हैं, और जब अस्थमा का सीवियर अटैक पड़ता है तो इमरजेंसी में भागकर आते हैं, 24 घंटे उपलब्ध हमारे बाल रोग विशेषज्ञ उनका परीक्षण कर उपचार उपलब्ध कराते हैं और अगर जरूरत होती है तो यहां उपलब्ध वेंटीलेटर पर भी रखना पड़ जाता है।
