जीवन जीने की कला सिखाती कहानी – 8
प्रेरणादायक प्रसंग/कहानियों का इतिहास बहुत पुराना है, अच्छे विचारों को जेहन में गहरे से उतारने की कला के रूप में इन कहानियों की बड़ी भूमिका है। बचपन में दादा-दादी व अन्य बुजुर्ग बच्चों को कहानी-कहानी में ही जीवन जीने का ऐसा सलीका बता देते थे, जो बड़े होने पर भी आपको प्रेरणा देता रहता है। किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के वृद्धावस्था मानसिक स्वास्थ्य विभाग के एडिशनल प्रोफेसर डॉ भूपेन्द्र सिंह के माध्यम से ‘सेहत टाइम्स’ अपने पाठकों तक मानसिक स्वास्थ्य में सहायक ऐसे प्रसंग/कहानियां पहुंचाने का प्रयास कर रहा है…
प्रस्तुत है आठवीं कहानी – अनमोल खजाना
सेठ घनश्याम के दो पुत्रों में जायदाद और ज़मीन का बंटवारा चल रहा था और एक चार पट्टी के कमरे को लेकर विवाद गहराता जा रहा था , एकदिन दोनों भाई मरने-मारने पर उतारू हो चले, तो पिता जी बहुत जोर से हंसे। पिताजी को हंसता देखकर दोनो भाई लड़ाई को भूल गये, और पिताजी से हंसी का कारण पुछा।
तो पिताजी ने कहा– इस छोटे से ज़मीन के टुकडे के लिये इतना लड़ रहे हो छोड़ो, इसे आओ मेरे साथ एक अनमोल खजाना बताता हूं मैं तुम्हें !
पिता घनश्याम जी और दोनों पुत्र पवन और मदन उनके साथ रवाना हुये पिताजी ने कहा देखो यदि तुम आपस मे लड़े तो फिर मैं तुम्हें उस खजाने तक नही लेकर जाऊंगा और बीच रास्ते से ही लौटकर आ जाऊंगा।
अब दोनो पुत्रों ने खजाने के चक्कर मे एक समझौता किया कि चाहे कुछ भी हो जाये पर हम लड़ेंगे नही प्रेम से यात्रा पर चलेंगे !
गांव जाने के लिये एक बस मिली पर सीट दो की मिली, और वो तीन थे, अब पिताजी के साथ थोड़ी देर पवन बैठे तो थोड़ी देर मदन ऐसे चलते-चलते लगभग दस घण्टे का सफर तय किया फिर गांव आया।
घनश्याम दोनों पुत्रों को लेकर एक बहुत बड़ी हवेली पर गये हवेली चारों तरफ से सुनसान थी। घनश्याम ने जब देखा की हवेली में जगह-जगह कबूतरों ने अपना घोसला बना रखा है, तो घनश्याम वहीं पर बैठकर रोने लगे।
दोनों पुत्रों ने पूछा क्या हुआ पिताजी आप रो क्यों रहे है ?
तो रोते हुये उस वृद्ध पिता ने कहा जरा ध्यान से देखो इस घर को, जरा याद करो वो बचपन जो तुमने यहां बिताया था , तुम्हे याद है पुत्र इस हवेली के लिये मैंने अपने भाई से बहुत लड़ाई की थी, सो ये हवेली तो मुझे मिल गई पर मैंने उस भाई को हमेशा के लिये खो दिया, क्योंकि वो दूर देश में जाकर बस गया और फिर वक्त बदला और एक दिन हमें भी ये हवेली छोड़कर जाना पड़ा !
अच्छा तुम ये बताओ बेटा कि जिस सीट पर हम बैठकर आये थे, क्या वो बस की सीट हमें मिल जायेगी? और यदि मिल भी जाये तो क्या वो सीट हमेशा-हमेशा के लिए हमारी हो सकती है? मतलब कि उस सीट पर हमारे सिवा कोई न बैठे। तो दोनों पुत्रों ने एक साथ कहा कि ऐसे कैसे हो सकता है, बस की यात्रा तो चलती रहती है और उस सीट पर सवारियां बदलती रहती हैं। पहले कोई और बैठा था, आज कोई और बैठा होगा और पता नहीं कल कोई और बैठेगा। और वैसे भी उस सीट में क्या धरा है जो थोड़ी सी देर के लिए हमारी है !
पिताजी फिर हंसे फिर रोये और फिर वो बोले देखो यही तो मैं तुम्हे समझा रहा हूं, कि जो थोड़ी देर के लिये तुम्हारा है, तुमसे पहले उसका मालिक कोई और था बस थोड़ी सी देर के लिए तुम हो और थोड़ी देर बाद कोई और हो जायेगा।
बस बेटा एक बात ध्यान रखना कि इस थोड़ी सी देर के लिए कहीं अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना, यदि कोई प्रलोभन आये तो इस घर की इस स्थिति को देख लेना कि अच्छे-अच्छे महलों में भी एक दिन कबूतर अपना घोसला बना लेते हैं। बस बेटा मुझे यही कहना था –कि बस की उस सीट को याद कर लेना जिसकी रोज उसकी सवारियां बदलती रहती है, उस सीट के खातिर अनमोल रिश्तों की आहुति न दे देना जिस तरह से बस की यात्रा में तालमेल बिठाया था बस वैसे ही जीवन की यात्रा मे भी तालमेल बिठा लेना !
दोनों पुत्र पिताजी का अभिप्राय समझ गये, और पिता के चरणों में गिरकर रोने लगे।
शिक्षा : जो कुछ भी ऐश्वर्य – सम्पदा हमारे पास है वो सबकुछ बस थोड़ी देर के लिये ही है, थोड़ी-थोड़ी देर मे यात्री भी बदल जाते हैं और मालिक भी। रिश्ते बड़े अनमोल होते हैं, छोटे से ऐश्वर्य या सम्पदा के चक्कर मे कहीं किसी अनमोल रिश्ते को न खो देना ! !