ऐसी भयावह स्थिति को रोकने की दिशा में कार्य करने के लिए केजीएमूयू ने साइन किया एमओयू
लखनऊ। एंटीबायटिक के अंधाधुंध उपयोग पर अगर हमने लगाम न लगायी तो 2050 तक स्थिति ऐसी हो जायेगी कि सबसे ज्यादा मौतों का कारण एंटीबायटिक का काम न करना होगा। इसकी वजह है कि जहां काम चाकू से चल सकता है तो वहां तलवार का प्रयोग किया जा रहा है। जी हां कुछ ऐसी ही स्थिति है एंटीबायटिक दवाओं की, कुछ चिकित्सकों ने इसे साधारण बुखार जैसी छोटी बीमारियों में देकर उस समय तो मरीज को ठीक कर दिया लेकिन वास्तव में भविष्य के लिए परेशानी का सबब पैदा कर दिया, क्योंकि जहां एंटीबायटिक दिये बिना काम चल सकता था वहां भी एंटीबायटिक देकर मरीज के शरीर में उस एंटीबायटिक की रेसिस्टेंस पैदा कर दी, ऐसी स्थिति में यह संभव है कि भविष्य में जब किसी गंभीर रोग में उस मरीज को वाकई उस एंटीबायटिक की जरूरत होगी तो वह एंटीबायटिक उसे फायदा नहीं करेगी। फिलहाल इस 2050 की अनुमानित स्थिति से बचने के लिए ही केजीएमयू एक स्टडी की पहल कर रहा है। इस स्टडी के लिए किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) ने केआईएमएस (KIMS) अस्पताल और अनुसंधान केंद्र, बैंगलोर के साथ एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसका शीर्षक है ““Intelligent global surveillance of bacterial pathogens using whole genome sequencing through appropriate sampling and analysis in sentinel surveillance sites within strategically relevant countries.”
केजीएमयू से इस स्टडी में प्रिंसिपल इन्वेस्टीगेटर के रूप में शामिल होने वाली माइक्रोबायोलॉजी विभाग की सहायक प्रोफेसर डॉ. शीतल वर्मा हैं, जो इस प्रोजेक्ट के सेंटर निदेशक वेलकम ट्रस्ट सेंगर इंस्टीट्यूट, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ रिसर्च (एन.एच.एस) के डॉ. डेविड आंनसेन ओर प्रोजेक्ट में सहयोगी केआईएमएस, बैंगलोर के डॉ. रविकुमार के साथ इस बात पर स्टडी करेंगी कि आखिर वे कौन से बायोलॉजिकल कारण हैं जो इन एंटीबायटिक को बेअसर बना रहे हैं, और उन कारणों को कैसे रोका जा सकता है। उन्होंने बताया कि यह परियोजना वेलकम ट्रस्ट सेंगर इंस्टीट्यूट द्वारा प्रायोजित है, जिसका उद्देश्य सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के लिए कार्रवाई योग्य डेटा प्रदान करना है, जो सेंगर इंस्टीट्यूट और एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण साइटों के बीच साझेदारी के माध्यम से उच्च जोखिम वाले बैक्टीरियल रोगजनकों को नियंत्रित करता है। पूरे जीनोम अनुक्रमण का उपयोग तेजी से रोगाणुरोधी प्रतिरोध (ए.एम.आर) नियंत्रण नीतियों को सूचित करने के लिए किया जा रहा है और यह भारत, फिलीपींस, कोलंबिया और नाइजीरिया में प्रहरी प्रयोगशालाओं में स्थानीय क्षमता को बढ़ाएगा।
डॉ शीतल ने बताया कि पता चला है कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पैमानों पर, ये उपन्यास गुण उभरकर देखने योग्य समय के भीतर फैलते हैं, जिसका अर्थ है कि सक्रिय निगरानी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिक्रिया में सुधार कर सकती है। बैक्टीरियल whole genome sequencing (WGS) का उपयोग महामारी की गतिशीलता को समझने की हमारी क्षमता को बदलने का वादा करता है। यह हमें bacterial drug resistance के लिए जिम्मेदार आनुवंशिक परिवर्तनों (mutations) की पहचान करने और विभिन्न व्यक्तियों और स्थानों से अलगाव के जीनोम की तुलना करने और प्रसार के संभावित मार्गों की अनुमति देता है। डॉ शीतल वर्मा ने बताया कि स्टडी के साथ ही इस दिक्कत से निपटने के लिए चिकित्सकों और आम लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने की भी आवश्यकता है। उन्होंने बताया कि चिकित्सक को एंटीबायटिक के अंधाधुंध प्रयोग को रोकने के लिए जागरूक करने की जरूरत है वहीं आम आदमी को इसलिए कि वह अपनी इच्छा से कोई भी एंटीबायटिक न खाये। इस बारे में उन्होंने स्पष्ट करते हुए बताया कि होता यह है कि मरीज को जब किसी रोग में डॉक्टर एंटीबायटिक खाने को देते हैं और उसे उससे लाभ मिल जाता है तो अगली बार जब वह बीमार पड़ता है तो चिकित्सक से बिना पूछे ही वही एंटीबायटिक सीधे दवा की दुकान से खरीद कर खा लेता है।