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जानिये, पीपीई की मजबूत गिरफ्त में किस तरह छटपटाती है जिन्‍दगी…

-कोरोना मरीजों का इलाज करने वाले स्‍वास्‍थ्‍यकर्मियों से जाने उनके अनुभव

-सिर्फ अहसास ही खड़े कर देता है रोंगटे, इन योद्धाओं के जज्‍बे को सलाम

धर्मेन्‍द्र सक्‍सेना

लखनऊ। यूँ तो अक्सर डॉक्टरों को प्रतिदिन 14-16 घंटे सरकारी अस्पतालों में मरीज़ों की सेवा सुश्रुषा में लगा देखा जा सकता है, किन्तु कोरोना काल में सभी डाक्टर्स पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (पीपीई) यानी व्यक्तिगत रक्षण उपकरण पहन कर काम करते हुए काफी कठिनाईयों का अनुभव भी कर रहे हैं। एक ऐसा व्यक्ति जिसमें पहले से ही कार्य अवधि एवं वातावरण को लेकर सहिष्णुता अधिक हो यदि वह भी कठिनाई अनुभव करे तो यह जानना निश्चित ही ज़रूरी हो जाता है कि ऐसे क्या कारण हैं कि पीपीई में काम करना इतना कठिन है।

कोरोना मरीजों की चिकित्‍सा में लगे चिकित्‍सक, नर्स आदि जो मरीज के सीधे सम्‍पर्क में आते हैं, ऐसे कोरोना वारियर्स की पीड़ा को समझने की कोशिश ‘सेहत टाइम्‍स’ ने की। सच में काबिलेतारीफ हैं इन योद्धाओं की सेवा। इस भीषण गर्मी में अपनी, परिवार के साथ ही दूसरे मरीजों की सुरक्षा को ध्‍यान में रखते हुए जो सुरक्षा कवच रूपी पीपीई किट इन्‍हें पहनना होता है, उसका दर्द महसूस करने के लिए विस्‍तार से जानने की जरूरत है। यहां प्रस्‍तुत हैं ऐसे कोरोना वारियर्स से उनके अनुभव।

सर्वप्रथम तो यह जानना ज़रूरी है कि आखिर यह पीपीई है क्या, पीपीई वह साधन हैं जो विविध रूपों में मानव शरीर की आवरण के रूप में रक्षा करते हैं । ड्यूटी शुरू होने से पूर्व इसे पहनने में लगभग 30-40 मिनट का समय लगता है, ऐसे में यह समझा जा सकता है कि इसे पहनने की प्रक्रिया ही काफी जटिल है। पीपीई पहनने की इस प्रक्रिया को डोंनिंग कहते हैं। पीपीई धारण करने का एक क्रम निर्धारित है, उस क्रम को ध्यान में रखते हुए ढंग से इसे पहनना होता है ताकि शरीर का कोई भी भाग बिना ढंके न रहे।

पहले इनर एवं अंत में आउटर ग्लव्‍स (अंदरूनी एवं बाहरी दस्ताने) के रूप में ग्लव्स की दोहरी परत बनाई जाती है ताकि सम्पूर्ण सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। एक सूट सम्पूर्ण शरीर को ढंकता है और फिर शुरू होता है चेहरे को ढंकने का महत्वपूर्ण कार्य। N95 मास्क पहन उसके बाद नाक पर माईक्रोपोर (टेप) लगा यह सुनिश्चित किया जाता है कि वह पूरी तरह से सील हो जाए ताकि चश्मे पर धुंध कम बने यानी फोगिंग कम हो जिससे कि‍ सही तरीके से देखा जा सके। इसके बाद लगाया जाता है चश्मा यानी गॉगल (कई जगह इसके स्थान पर फेस शील्ड का प्रयोग किया जाता है) जिससे कि‍ आँख एवं उसके आस-पास के क्षेत्र की सुरक्षा की जा सके। इसमें जो लोग पहले से नज़र का चश्मा लगाते हैं उनके लिए समस्या दोगुनी हो जाती है। चेहरे का अन्य कोई हिस्सा यदि बिना ढंके छूट जाए तो उसे भी फिर गौज का टुकड़ा (एक तरह की पट्टी) लगा चेहरे पर माईक्रोपोर (टेप) के माध्यम से चिपका दिया जाता है। पीपीई का हुड (टोपी) पहन अंत में पूर्ण सुरक्षा के लिए पूरे चेहरे को फिर से माईक्रोपोर (टेप) से ढंका जाता है ताकि कोई भी हिस्सा खुला ना रहे।

6-8 घंटे ड्यूटी खत्म होने के बाद यही सब माईक्रोपोर (टेप) जब चेहरे से हटाए जाते हैं तो वहां खरोंच के रूप में घाव हो जाते हैं। पूरा चेहरा लाल होने के साथ बने यह घाव काफी जलन का अनुभव कराते हैं। N95 की डोरी द्वारा लगातार इतने समय कान पर लगे रहने से कान पूरी तरह लाल हो जाते हैं, पूरी ड्यूटी के दौरान खिंचाव का सा एहसास रहता है तथा कान के पीछे की तरफ भी खरोंच आ जाती है (यह समस्या सि‍र पर बाँधने वाली N95 की डोरी के साथ नहीं होती, किन्तु मास्क का चुनाव नहीं किया जा सकता, कौन सा मास्क मिलेगा यह उपलब्धता पर आधारित है)। इन सब कार्य करने में यहाँ तक थोड़ा परिश्रम था इसके बाद अब यहाँ से शुरू होता है संघर्ष।

इस पूरे आवरण को धारण कर वार्ड में जाकर काम करना अपने आप में चुनौतीपूर्ण होता है, कुछ ही देर में फोगिंग के कारण दृष्टि सामान्य से 20% से भी कम रह जाती है, ऐसे में मरीज़ की फ़ाइल में नोट्स डालना, जाँच के लिए खून के नमूने निकालना, बेहोश मरीज़ों में नाक एवं पेशाब की नली डालना, डायलिसिस के लिए लाइन डालना तथा ज़रूरत पड़ने पर साँस में तकलीफ हो तो साँस की नली डालना (इंटयूबेट करना) इसी 20 प्रतिशत दृष्टि के साथ बिना चूके करना होता है, शायद इसकी तुलना वर्तमान समय में अर्जुन द्वारा चिड़िया की आँख पर निशाना लगाने से की जा सकती है।

विषम परिस्थिति एवं असाध्य लक्ष्य किंतु फिर भी इन् सब से विचलित हुए बिना एक स्वास्थ्यकर्मी अपने कर्तव्य का निर्वहन करता है। पूरे शरीर के बंधे होने के कारण व्यक्ति घुटन का भी अनुभव करता है। इस पूरी ड्यूटी के दौरान पीपीई पहने होने के कारण व्यक्ति पानी भी नहीं पी सकता। मल, मूत्र त्यागने जैसी क्रियाएँ भी इस दौरान नहीं की जा सकती। इतने सारे माईक्रोपोर (टेप) लगे होने के कारण कई बार चेहरे पर खुजली का भी अनुभव होता है किंतु उसे भी सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। कई बार नाक पर लगा माईक्रोपोर (टेप) आँख के नीचे पलकों से चिपक जाता है और फिर दर्द एवं पीड़ा का अनुभव कराता है किंतु जब तक पीपीई उतारने का वक़्त ना हो जाए इस पीड़ा का निवारण असंभव है।

ड्यूटी के दौरान हाथ पैरों का संचालन भी बड़ा संभल कर करना पड़ता है अन्यथा पीपीई फटने का खतरा रहता है। आँख पर बड़ा चश्मा नाक पर एक सतत् दबाव बनाए रखता है जिसके कारण चुभन सी महसूस होती है। पानी न पी पाने तथा पूरे ढंके शरीर में भयंकर पसीना आने के कारण अक्सर स्वास्थ्यकर्मी डिहाइड्रेशन यानी पानी की कमी का शिकार हो जाते हैं। सम्पूर्ण अनुभव को यदि संक्षेप में बताना हो तो यूँ कहा जा सकता है कि व्यक्ति को यदि बाँध कर उसके शरीर के आकार के एक डब्बे के अंदर बंद कर दिया तो जिस तरह का अनुभव हो शायद यह उसके कुछ करीब है। 6 घंटे की ड्यूटी अगले व्यक्ति के डोंनिंग प्रक्रिया पूरी कर आने तथा फिर आपके द्वारा सभी मरीज़ों का लेखा-जोखा दे निकलने तक 8 घंटे की हो जाती है।

ड्यूटी पूरी कर शुरू होती है प्रक्रिया पीपीई उतारने यानी डॉफिंग की, इसमें भी लगभग डोंनिंग जितना या उससे 5-10 मिनिट ज़्यादा का ही वक़्त लगता है। 6-8 घंटे की ड्यूटी के दौरान पूरा शरीर पसीने से भीग जाता है जिसका एहसास पीपीई उतारने के बाद होता है। काफी समय से अंदर पसीने में भीगने के कारण हाथ की चमड़ी, काफी समय पानी में डुबोए रखने जैसी झुर्रीदार हो जाती है। डॉफिंग एक ज़्यादा ज़रूरी प्रक्रिया है तथा ड्यूटी की थकान के बावजूद भी इसमें कतई कोताही नहीं बरती जा सकती क्योंकि मरीज़ से प्राप्त संक्रमण इसी वक्त आपको लगने की संभावना सबसे अधिक रहती है, ऐसे ही वक्‍त के लिए क्वारंटाइन ज़रूरी बताया गया है क्योंकि अधिकतर संक्रमण पीपीई में ब्रीच के कारण नहीं बल्कि इसी वक्त होता है। अंत में स्नान कर अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करते हैं ये कोरोना वारियर्स, फिर से 12 घंटे बाद इसी प्रक्रिया से गुजरने के लिए।

इन योद्धाओं का कहना है कि इसीलिए कहा गया है कि घुटन, जलन, दर्द और पीड़ा से भरे इस कर्तव्यनिर्वहन को शायद बाहर बैठा व्यक्ति समझ तो सकता है किंतु महसूस नहीं कर सकता। देश वर्तमान में एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा है, सदियों से वह हमारी जिजीविषा ही है जिसने हम भारतीयों को हर मुश्किल दौर से उबरने का साहस प्रदान किया है, ऐसे में निश्चित ही इस बार भी डॉक्टर्स एवं अन्य स्वास्थ्यकर्मियों की कर्तव्यनिष्ठता रूपी संजीविनी के बूते हम अपना अस्तित्व सिर्फ कायम रखने मात्र में ही सफल नहीं होंगे अपितु आने वाले वाले समय में फिर तीव्र गति से विकास की राह पर चल भी पाएँगे। आखिर किसी ने ठीक ही कहा है “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़मां हमारा”।