-रजिस्टर्ड क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता से विशेष भेंटवार्ता

धर्मेन्द्र सक्सेना
लखनऊ। किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े 12-13 साल के बच्चे से लेकर 24-25 साल के नवयुवक जिस प्रकार ड्रग एडिक्शन के शिकार हो रहे हैं, यह बहुत चिंतनीय है, क्योंकि इसका शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक असर पड़ रहा है। इसके कारण गैस्ट्रो संबंधी बीमारियां फैटी लिवर, लिवर सिरोसिस, हेपेटाइटिस, पैंकियाटाइटिस, एक्ने, किसी अंग का एनलार्ज होना जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं। इसके अलावा इन ड्रग्स का सेंट्रल नर्वस सिस्टम पर भी बहुत असर पड़ता है, व्यक्ति का आत्महत्या की तरफ रुझान हो सकता है। गर्भवती महिलाएं अगर अल्कोहल का सेवन करती हैं तो उसका असर गर्भ में पल रहे बच्चे को भी पड़ता है जिससे उसमें ऐब्नॉर्मलिटी, मानसिक दुर्बलता, कुपोषण, सेक्सुअल डिस्फंक्शन, डिहाइड्रेशन में जा सकते हैं। लोगों में ड्रग के प्रति ऐसी निर्भरता हो जाती है कि उसको लेने के लिए ये लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं। अपने आपको फिजिकली, फाइनेंशियली डिस्टर्ब कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त इसके लिए चोरी, मारपीट, लड़ाई भी कर सकते हैं। सवाल यह उठता है कि ये सब क्यों हो रहा है, कैसे इस पर लगाम लगे तथा जो इसके शिकार हो चुके हैं उन्हें किस प्रकार सही रास्ते पर लाया जाये। इसके लिए प्रयास घर-परिवार से लेकर स्कूल और सरकार सबको मिलकर करने होंगे।
यह बात अलीगंज कपूरथला स्थित सेंटर ऑफ मेंटल हेल्थ ‘फेदर्स’ की संस्थापक रजिस्टर्ड क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता ने ‘सेहत टाइम्स’ के साथ एक विशेष मुलाकात में कही। उन्होंने कहा कि यह समस्या डायरेक्टली इनडायरेक्टली फिजिकल और साइकोलॉजिकल चीजों पर असर डाल रही है। जैसा कि बहुत से लोग जानते हैं कि कोई भी ऐसी चीज जिसकी हमारे शरीर को इतनी आदत लग जाये, जिसकी वजह से हमारे रोज की एक्टिविटी की फंक्शनिंग ही बिगड़ जाए उसको हम एडिक्शन बोलते हैं। ड्रग एडिक्शन के चार पैटर्न्स में डिस्क्राइब किया गया है पहला मादक पदार्थ को एक बार में बहुत ज्यादा मात्रा में ले लेना जिसको हम एक्यूट इंटॉक्सिकेशन बोलते हैं, दूसरा इतना ज्यादा एडिक्शन हो जाना या बर्दाश्त न कर पाना कि अगर किसी एक दिन नहीं ड्रग न मिले तो उसे लक्षण आने लगते हैं, तीसरा ड्रग के प्रति डिपेंडेंसी यानी निर्भर होना, कि अगर आपके पास उपलब्ध नहीं है तो आप कार्य ही नहीं कर पाएंगे, उस ड्रग के लिए आप कानूनी-गैरकानूनी, किसी भी हद तक जा सकते हैं।

सावनी बताती हैं कि इन मादक पदार्थों में जो कॉमन ड्रग पाये जाते हैं वे हैं अल्कोहल, ओपियाइड यानी हेरोइन अफीम, वीड, भांग, कोकीन, विभिन्न प्रकार की ऐसी ड्रग्स जो दर्द से छुटकारा दिलाने के लिए बनायी गयी हैं, लेकिन उसका दुरुपयोग नशे के लिए किया जाता है। इसी प्रकार कैफीन व निकोटिन वाली सिगरेट, तम्बाकू जैसी चीजें शामिल हैं। इसके अतिरिक्त वोलेटाइल सॉल्वेंट्स जैसे कि नेल पॉलिश, पेट्रोल जो फायर कैचिंग चीज होती है, जो स्मेल करते हैं, ये कुछ बड़े ड्रग आइटम्स है जो आसानी से उपलब्ध होते हैं और बाजार में पाये जाते हैं।
सावनी का कहना है कि बच्चे किस प्रकार ड्रग के शिकार हो रहे हैं, उसके कॉमन फैक्टर में बायोलॉजिकल फैक्टर भी होते हैं, जिसमें बच्चों ने कभी किसी समय ऐसी नशीली चीज साथियों के दबाव में आकर ले ली थी, जिसकी वजह से अब उनकी उस ड्रग को लेने की इच्छा जगने लगी है या घर में ही पैसिव स्मोकिंग, ड्रिंकिंग वाले माहौल के आदी हो गये हों। इसके मनोवैज्ञानिक कारणों में शामिल हैं उत्सुकता तथा कुछ नया करने की चाहत। मतलब कुछ नया ट्राई करना है, उनकी सोच होती है कि पेरेंट्स ने जो करने को मना किया है तो हम क्यों ना करें, जबकि हमारे साथ के लोग कर रहे हैं। सामने वाले के व्यवहार की नकल करना, कह सकते हैं कि सामाजिक आदर्शों के खिलाफ जाने की टेंडेंसी बनी हुई है, कुछ डिफरेंट करने का साइकोलॉजिकल प्रेशर रहता है। निर्णय लेने में बहुत हड़बड़ी दिखाते हैं। सोशल मीडिया पर दिखायी और बतायी गयी बातों से बहुत जल्दी प्रेरित हो जाते हैं। बोर्डिंग में रहते हैं, पढ़ाई का बहुत प्रेशर है या घर में किसी तरीके के तनावपूर्ण वातावरण का सामना करते हैं। फैमिली का सपोर्ट न मिलना, फैमिली से दूरी, एकल परिवार में रहना, माता-पिता सर्विस करते हैं। बच्चे इमोशनली डिस्टेंस और कट ऑफ फील करते हैं। माता-पिता द्वारा बच्चों को भरपूर पैसा उपलब्ध कराना जैसे कारण हैं। ऐसे में साइकोलॉजिकल डिस्ट्रेस से निकलने के लिए अक्सर लोग ऐसी किसी चीज का सहारा ले लेते हैं जो उसे सच के अहसास से परे ले जाती है, जो कि धीरे-धीरे लत में कन्वर्ट हो जाती है। सभी साइकोलॉजिकल बायोलॉजिकल और सोशल फैक्टर्स के मिलने-जुलने से कहीं ना कहीं वे गलत आदतों में शामिल हो जाते हैं। या फिर इसके विकल्प के रूप में मोबाइल फोन, ऑनलाइन गेमिंग में शामिल हो जाते हैं। दरअसल बच्चों को मोरल एंड इमोशनल सपोर्ट बच्चों को नहीं मिल पाता है।
सावनी बताती हैं कि अगर हम समाधान की बात करें तो पैरेंट, स्कूल लेवल पर जागरूकता जरूरी है। माता-पिता थोड़ी सख्ती बरतें, बच्चों को अनुशासित रहना सिखायें, नाबालिगों के ड्रिंक एंड ड्राइविंग के मामले सामने आ रहे हैं, इसके लिए पेरेंट्स को देखना होगा कि वे बच्चों को वाहन न उपलब्ध न करायें, उन पर निगाह रखें, उनके फ्रेंड सर्किल पर नजर रखें कि वे क्या कर रहे हैं। उनके अगर ऐसा कुछ लग रहा है तो उससे बात करें, समझायें। बेहतर होगा कि उसे मनोवैज्ञानिक के पास थैरेपी के लिए भेज सकते हैं। जहां उसकी सहायता से उसकी काउंसिलिंग करायें। इसके बाद भी अगर फायदा न हो तो तो फिर अलग प्रोसेस होता है जिसमें डिटॉक्सिफिकेशन करते हैं। इसके लिए उसे मेडिसिन प्लस ट्रीटमेंट जैसे कि दवाओं, बिहैवियर थैरेपी, साइकोथेरेपी या एनोनिमस ग्रुप (एक सी समस्या का सामना करने वाले ग्रुप) थेरेपी से ट्रीटमेंट कराया जा सकता है। दूसरी ओर सरकार को चाहिये कि बच्चों तक प्रतिबंधित चीजों जिससे वे नशे में लिप्त हो सकते है, की उपलब्धता आसान न रहे। इसके लिए इस सम्बन्ध में बने नियमों का सख्ती के साथ पालन करवाने की व्यवस्था लागू करे।
