-साप्ताहिक समीक्षा : ‘सेहत टाइम्स’ का दृष्टिकोण
धर्मेन्द्र सक्सेना
धीरे-धीरे किसान आंदोलन एक परफॉरमिंग स्टेज बनता जा रहा है जहां लोग आ रहे हैं। सरकार विरोधी बातें कह रहे हैं उनकी बातें समाचारों की सुर्खियां बन रही हैं, और उन्हें पब्लिसिटी मिल रही है। भारत में रहने वाले लोग अगर इस विषय पर कुछ टिप्पणी कर रहे हैं तो समझ में आता है कि देश के अंदर के लोग अपनी राय रख रहे हैं लेकिन विदेश में बैठे लोग, खासतौर से वे लोग जिनका खेती-किसानी से कोई वास्ता नहीं है, न ही किसानों के दुखदर्द से उनका कुछ लेनादेना होगा, वे भी इस आंदोलन को बिना सोचे-समझे समर्थन देते हुए सरकार के समक्ष अपनी राय रख रहे है। उस पर दुखद यह कि कांग्रेस जैसी सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के नेता सिर्फ मोदी सरकार के विरोध के चलते बाहरी लोगों की हां में हां मिला रहे हैं। जबकि कांग्रेस और जो भी पार्टियां विदेशी लोगों के ट्वीट का समर्थन कर रही हैं, उनकी भूमिका तो यह होनी चाहिये थी कि आपस में हम कितना भी मतभेद रख लें लेकिन हमारे मतभेदों का फायदा बाहरी व्यक्ति आकर न उठा पाये।
कहावतें या कहानियां जो गढ़ी गयी हैं वे अच्छे संदेश देने के लिए ही बनी हैं , एकता में शक्ति को लेकर ऐसी ही एक कहानी एक पिता के पांच बेटों वाली है जिसमें उसका पिता अपने बेटों को पहले एक-एक लकड़ी तोड़ने को देता है, जो कि आसानी से टूट जाती है, फिर पिता पांचों लकडि़यों को एकसाथ बांधकर तोड़ने को देता है जो कि कोई पुत्र नहीं तोड़ पाता, इससे सबक क्यों नहीं लेते हैं हमारे विपक्षी नेता। इस तरह का आचरण करके विपक्ष अपना ही नुकसान कर रहा है। विपक्षी नेता विशेषकर कांग्रेस पार्टी के नेता अपनी पार्टी के अतीत को क्यों नहीं याद रखते है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी की वाक्पटुता से इतने प्रभावित थे कि 1957 में उन्होंने वाजपेयी को भविष्य में भारत का प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी की। वाजपेयी को एक विदेशी गणमान्य व्यक्ति के रूप में पेश करते हुए, नेहरू ने कहा, “यह युवा एक दिन देश का प्रधानमंत्री बन जाएगा।” नेहरू की भविष्यवाणी 1990 के दशक में लगभग 40 साल बाद सच हुई।
इसी प्रकार तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने अपने समय में विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी काबिलियत को पहचानते हुए यूनाइटेड नेशंस की एसेम्बली में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था। अटल बिहारी वाजपेयी ने भी नरसिंह राव के दिये दायित्व को पार्टी लाइन से अलग रखते हुए नेशन फर्स्ट का फॉर्मूला रखते हुए कांग्रेस के नेतृत्व वाली भारत सरकार के मान, सम्मान के साथ ही भारत देश की आन, बान, शान की गहरी छाप छोड़ी थी। अफसोस है कि आज तस्वीर बिल्कुल उलट हो रही है, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार का विरोध करना ही एकमात्र एजेंडा रह गया है विपक्ष के पास।
देश किसी एक आदमी के बल पर नहीं चलता है, देश चलता है व्यवस्था से, उस व्यवस्था से जिसमें एक नहीं लाखों लोग शामिल हैं। इस व्यवस्था को चलाने के लिए व्यक्ति का चुनाव देश की जनता करती है। ऐसे में उस व्यक्ति का बिना किसी ठोस आधार के बार-बार अपमान करके विपक्ष नेतृत्व यानी नरेन्द्र मोदी का ही अपमान नहीं कर रहा है, बल्कि परोक्ष रूप से उस बहुमत का भी अपमान कर रहा है जो सरकार बनाने के लिए दिया गया है। यही नहीं इस अपमान करने की कीमत देश की अस्मिता से खिलवाड़ करके (विदेशी लोगों की टिप्पणी का समर्थन करके) चुकाना कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है।