50 वर्ष से ज्यादा की आयु वाले लोगों की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है सीओपीडी
लखनऊ। सीओपीडी (क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज) फेफड़ों का ऐसा रोग है जो 50 वर्ष से ज्यादा की आयु वाले भारतीयों की मौत का दूसरा बड़ा कारण है। दुनिया में यह पांचवां सबसे घातक रोग है। सामान्य रूप से धूम्रपान करने वालों का माना जाने वाले इस रोग से अब धूम्रपान न करने वाले भी बड़ी मात्रा में ग्रस्त पाये जा रहे हैं इसका कारण है धुआं। धुआं चाहे सिगरेट, बीड़ी का हो या फिर किसी अन्य चीज का। दुनिया भर में करीब आधी जनसंख्या बायोमास ईंधन के धुएं के सम्पर्क में आती है जिसका उपयोग रसोई और अन्य कार्यों के लिए किया जाता है। बायोमास ईंधन जैसे लकड़ी, पशुओं का गोबर, फसल के अवशेष है।
यह जानकारी वर्ल्ड सीओपीडी डे के मौके पर आयोजित प्रेस वार्ता में मिडलैंड हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेन्टर के डायरेक्टर पल्मोनरी रोग विशेषज्ञ डॉ बीपी सिंह ने दी। उन्होंने कहा कि अनेक लोगों में यह रोग अज्ञात रूप से मौजूद रहता है। डॉ सिंह ने बताया कि हमारे घरों में एक लोकप्रिय उत्पाद अक्सर ठंड के मौसम में जगह बनाता है और वह है मॉस्क्वीटो कॉइल। उन्होंने कहा कि यह जानकर हैरानी होगी कि मॉस्क्वीटो कॉइल से 100 सिगरेट जितना धुआं (पीएम 2 दशमलव 5) निकलता है और 50 सिगरेट जितना फॉर्मलडिहाइड निकलता है। उन्होंने कहा कि हम भले ही नियमित रूप से धूम्रपान न करते हों लेकिन अनचाहे ही हम अपनी सेहत से समझौता करने वाले उत्पादों का उपयोग करके संकट को निमंत्रण दे रहे हैं।
उन्होंने बताया कि शहरी भारत में 32 प्रतिशत घरों में अब भी बायोमास स्टोव का उपयोग होता है, 22 फीसदी लकड़ी का उपयोग करते हैं, 8 फीसदी लोग केरोसीन और शेष लोग लिक्विड पेट्रोलियम गैस या नैचुरल गैस जैसे साफ सुथरे ईंधन का प्रयोग करते हैं। विकासशील देशों में सीओपीडी से होने वाली करीब 50 प्रतिशत मौतें बायोमास के धुएं के कारण होती हैं, जिसमें से 75 फीसदी महिलाएं होती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार यह तथ्य इस बात की ओर इशारा करता है कि विशेषकर ग्रामीण इलाकों में महिलाएं और लड़कियां रसोईघर में अधिक समय बिताती हैं।
डॉ सिंह ने बताया कि बायोमास ईंधन घर के अंदर बहुत ही ऊंची मात्रा में प्रदूषण पैदा करते हैं। अक्सर ग्रामीण इलाकों में रसोईघरों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव होता है और उनमें हवा के आवागमन की व्यवस्था भी ठीक नहीं होती है, जिससे गृहिणियों को गैसीय प्रदूषण और कणों के अत्यंत ऊंचे स्तर का सामना करना पड़ता है। उन्होने बताया कि दुनिया के सबसे प्रदूषित 20 शहरों में 10 भारत में ही हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सर्वे के अनुसार नियंत्रित समूह के 20 दशमलव 1 फीसदी की तुलना में दिल्ली में 40 दशमलव 3 प्रतिशत लोगों के फेफड़े की काम करने की क्षमता में गिरावट आयी है।
डॉ सिंह ने कहा कि आज हम जिस हवा में सांस ले रहे हैं वह विषैली हो गयी है। हवा में इन सूक्ष्म कणों की मौजूदगी के साथ हमारे फेफड़ों की क्षमता पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है। शहरी क्षेत्रों में इस रहन-सहन की शैली के साथ श्वसन संबंधी रोग चिंता का विषय हैं।