-प्रो संदीप साहू के ‘फ्ल्यूड मैनेजमेंट’ को अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता
सेहत टाइम्स ब्यूरो
लखनऊ। ऑर्गन ट्रांसप्लांट खासतौर से किडनी ट्रांसप्लांट की सफलता का प्रतिशत अब और भी बढ़ गया है, इसके पीछे नयी तरीके से फ्ल्यूड का प्रबंधन करना है, बैलेंस तरीके से फ्ल्यूड के प्रबंधन के साथ आधुनिक मशीनों के उपयोग से यह संभव हो सका है। किडनी ट्रांसप्लांट की सफलता का प्रतिशत बढ़ने की यह स्टडी यहां संजय गांधी पीजीआई के एनेस्थीसिया विभाग के प्रो संदीप साहू व उनकी टीम द्वारा की गयी है जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्रदान की गयी है। इस प्रकार संजय गांधी पीजीआई ने एक बार फिर नयी सफलता का परचम लहरा कर अपना लोहा मनवाया है।
इस बारे में प्रो संदीप साहू ने बताया कि कोई भी ऑपरेशन जब होता है तो एनेस्थीसिया देने के साथ ही फ्ल्यूड मैनेजमेंट करना भी एनेस्थेटिस्ट का एक मुख्य कार्य होता है। मरीज को कितना फ्ल्यूड देना है, कितनी यूरीन आनी चाहिये, यह सब तय किया जाता है। ऐसे मे अंग प्रत्यारोपण में यह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, विशेषकर किडनी में। उन्होंने बताया कि किडनी ट्रांसप्लांट इसीलिए हो रही है, क्योंकि वह कार्य नहीं कर रही है, किडनी के काम न करने की स्थिति में संतुलित मात्रा में ही फ्ल्यूड शरीर के अंदर जाना चाहिये, यह बहुत महत्वपूर्ण है। जो भी फ्ल्यूड दिया जायेगा वह निकलेगा तो नहीं।
बैलेंस सॉल्ट सॉल्यूशन है बेस्ट
पहले जो नॉर्मल सलाइन दी जाती थी, उसमें क्लोराइड की मात्रा ज्यादा होती है, किडनी अगर ट्रांसप्लांट हुई है तो क्लोराइड प्रत्यारोपित की गयी किडनी के फंक्शन को प्रभावित कर सकता है। दूसरा फ्ल्यूड रिंगर लैक्टेट होता है इसमें लैक्टेट अगर शरीर से नहीं निकला तो वह भी परेशान कर सकता है, इसलिए तीसरा फ्ल्यूड बैलेंस सॉल्ट सॉल्यूशन जो पिछले सालों में नया आया है, इसकी खूबी यही है कि हमारे खून में जितने भी अवयव होते हैं, वही अवयव इस सॉल्यूशन में संतुलित मात्रा में होते हैं, यानी न ज्यादा न कम।
मशीन बताती है कितनी है शरीर को जरूरत
डॉ संदीप ने बताया कि दूसरी खास बात यह है कि यह देखा गया कि कितना फ्ल्यूड, कैसे देना चाहिये इसका निर्धारण भी महत्वपूर्ण होता है। पहले सेंटर लाइन से फ्ल्यूड दिया जाता था, पिछले 10 सालों में यह बदल गया है, नयी मशीनें आयी हैं, जो पीजीआई में भी उपलब्ध हैं। उन्होंने बताया कि इन मशीनों की खासियत यह है कि यह बता देती हैं कि शरीर में पानी की मात्रा कितनी है, कम है कि ज्यादा है, जो पानी दिया गया है तो उसका कितना रिस्पॉन्स आया है, यानी मरीज को फ्ल्यूड की जरूरत है या नहीं, यह सब मशीन बता देती है।
ज्यादा फ्ल्यूड से हार्ट फेल्योर का खतरा भी हुआ समाप्त
डॉ संदीप बताते हैं कि फ्ल्यूड की मात्रा का महत्व यह है कि यदि किडनी ट्रांसप्लांट होना है उसे कम फ्ल्यूड दिया तो हो सकता है जो नयी किडनी लगायी जायेगी तो वह काम नहीं करेगी और अगर ज्यादा दिया तो चूंकि किडनी का फंक्शन प्रॉपर नहीं है, ऐसे में अगर किडनी से फ्ल्यूड निकल नहीं पाया तो वह फेफड़ों में भर जायेगा जिससे हार्ट फेल्योर हो जायेगा, इसलिए न कम न ज्यादा ऐसी संतुलित मात्रा में फ्ल्यूड देने के लिए इन आधुनिक मशीनों का ही प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार फ्ल्यूड अवयव और फ्ल्यूड की मात्रा दोनों का प्रबंधन अच्छे से होने के कारण ही प्रत्यारोपण की सफलता का प्रतिशत बढ़ सका है।
प्रो संदीप साहू की टीम में डॉ दिव्या श्रीवास्तव, डॉ तपस और डॉ ऊषा किरण शामिल हैं। टीम ने किडनी ट्रांसप्लांट के 120 मरीजों पर लम्बे समय तक शोध किया है। उन्होंने बताया कि उनके इस शोध को बाली जर्नल आफ एनेस्थेसिया के साथ ही इंडियन जर्नल आफ एनेस्थेसिया ने भी स्वीकार किया है।