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कोरोना वायरस : चिकित्‍सक और चिकित्‍सा से जुड़े लोगों को सलाम

-विपरीत परिस्थितियों में भी जज्‍बे के साथ कार्य करना प्रशंसायोग्‍य
-दुनिया भर में फैली दहशत पर ‘सेहत टाइम्‍स’ के मन की बात

धर्मेन्‍द्र सक्‍सेना

लखनऊ। कोरोना वायरस को लेकर पूरी दुनिया में दहशत छायी हुई है। राष्‍ट्रपति भवन में होने वाला होली मिलन समारोह रद हो चुका है,  प्रधानमंत्री सार्वजनिक होली मिलन में नहीं शामिल होंगे, अनेक संस्‍थाओं द्वारा आयोजित किया जाने वाला होली मिलन समारोह नहीं मनाये जाने का ऐलान किया जा चुका है। दुनिया भर की अर्थव्‍यवस्‍था चरमरा रही है। अंतर्राष्‍ट्रीय सीमायें सील हैं। ताजा खबरों के अनुसार केरल में सिनेमा हॉल बंद कर दिये गये हैं, कहने का मतलब है कि कोरोना वायरस की दहशत कहें या उससे बचने के लिए सावधानी, नतीजा यह है कि सब अपनी-अपनी तरह से इससे बचने की कोशिश कर रहे है। मॉल, बाजारों में हमेशा से जो भीड़ रहती थी, इस बार होली पर भी नहीं दिखी, स्‍कूलों पर भी असर दिख रहा है, हर तरफ सतर्कता बरती देखी जा रही है, बचाव करना, सावधानी रखना एक अच्‍छा संकेत है कि हम जागरूक हो रहे हैं। लेकिन इन सभी खतरों और खतरों के माहौल के बीच एक समुदाय ऐसा भी है जो गंभीरता के साथ अपने सेवा कार्य में लगा है, और वह समुदाय है चिकित्‍सा क्षेत्र से जुड़ा समुदाय।

गंभीर से गंभीर मरीज जब पहली बार अस्‍पताल, क्‍लीनिक पहुंचता है तो उसे सबसे पहले एक चिकित्‍सक ही उसके पास जाकर, छूकर, जांचकर जैसी भी जरूरत होती है, उसे देखता है। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन से कोरोना वायरस को महामारी घोषित करने के बाद से चिकित्‍सक समुदाय की जिम्‍मेदारी और बढ़ चुकी है। अच्‍छी बात यह है कि चिकित्‍सक अपनी जिम्‍मेदारी को बखूबी निभा रहे हैं। इसके लिए निश्चित रूप से यह समुदाय प्रशंसा के पात्र हैं। अब बहुत से लोग यह कह सकते हैं कि यह तो चिकित्‍सक का कार्य है, जो वह कर रहा है, सभी अपना-अपना कार्य करते हैं, तो ऐसे में मेरा यह मानना है कि सही है सभी अपना कार्य करते हैं, और सभी के कार्य का अपना-अपना महत्‍व है, उनके कार्य को महत्‍वहीन कहना मेरा उद्देश्‍य नहीं है, लेकिन चूंकि चिकित्‍सक का कार्य व्‍यक्ति के स्‍वास्‍थ्‍य से जुड़ा है, इसलिए किसी भी परिस्थिति के बावजूद उनके द्वारा‍ किये जाने वाले कार्य के लिए मैं उन्‍हें महत्‍वपूर्ण मानता हूं, और यहां यह जिक्र करने का मेरा उद्देश्‍य चिकित्‍सक के जीवन-मौत से जुड़े इस कार्य के महत्‍व को संजीदा तरीके से अहसास करना और कराना है।

मेरा मानना है कि चिकित्‍सक जीवन नहीं देता है, क्‍योंकि जीवन का प्रारंभ और जीवन का अंत एक ऐसी प्रक्रिया है जो कोई भी साइंस नहीं जान पायी है, इस प्रारम्‍भ और अंत को ईश्‍वर ही संचालित करता है, इसलिए कोई भी चिकित्‍सक जीवन तो नहीं दे सकता है लेकिन एक चिकित्‍सक गुणवत्‍ता भरा जीवन (क्‍वालिटी ऑफ लाइफ) जरूर देता है, ऐसा कहने के पीछे मेरा आधार यह है कि अगर व्‍यक्ति के पास सांसें हैं तो उन सांसों को वह बिस्‍तर पर पड़े रहकर, यहां तक कि कोमा में रहकर भी पूरी करता है, लेकिन अगर सांसें नहीं हैं तो चिकित्‍सक एड़ी-चोटी का जोर लगा ले फि‍र भी अपने चाहने वालों तक को नहीं बचा सकता है।

दुखद पहलू यह है कि व्‍यावसायिकता की इस दौड़ में चिकित्‍सक और मरीज के बीच का अनमोल सम्‍बन्‍ध कहीं खो सा गया है, इसमें दरारें आ रही हैं, यह चिंता का विषय है, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इसमें सारी गलती सिर्फ मरीज या उनके परिजनों की है, अपेक्षा के विपरीत व्‍यवहार चिकित्‍सक, चिकित्‍सा कर्मियों की तरफ से भी हो जाता है, लेकिन महत्‍वपूर्ण यह है कि ऐसा क्‍यों होता है, क्‍या संसाधनों के अभाव से, या क्‍या मानव संसाधनों के अभाव से, या लापरवाही से, कुल मिलाकर इस पर चिकित्‍सक सहित सभी को विचार करना होगा क्‍योंकि कहीं न कहीं हर व्‍यक्ति की डोर एक-दूसरे से जुड़ी हुई है, यानी एक-दूसरे के कार्यों की जरूरत आपस में पड़ती ही है, और यह बात चिकित्‍सक और मरीज के सम्‍बन्‍धों पर भी लागू होती है।

अंत में आजकल चल रही विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को, खुद के परिवार को मानसिक रूप से दृढ़ता और सुरक्षा प्रदान करने की जिम्‍मेदारी निभाते हुए समाज के हर व्‍यक्ति और उसके परिवार को ढाढ़स देने, बीमारियों से बचाव की जानकारी देने, उसे हिम्‍मत देने, अपने होने का अहसास कराने और जरूरत पड़ने पर उसका इलाज करने का जज्‍बा लिये हुए चिकित्‍सकों को ‘सेहत टाइम्‍स’ का सलाम है।