नववर्ष चेतना समिति एवं लखनऊ विश्व विद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में ‘भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित
लखनऊ। हमारे इतिहास को बहुत तोड़ा-मरोड़ा गया है। इसे नष्ट करने की कोशिशें हुई हैं, ऐसे में जिस संस्कृति के बारे में आज के इतिहासकारों, शोधकर्ताओं को पता है, उसे अपने बच्चों को बताने की हमारी जिम्मेदारी बनती है। हमारी आने वाली युवा पीढ़ी को हमारी संस्कृति का पता चलना जरूरी है।
यह बात शनिवार को लखनऊ विश्वविद्यालय स्थित मालवीय सभागार में नववर्ष चेतना समिति एवं लखनऊ विश्व विद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित ‘भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य‘ एक दिवसीय राष्ट्रीय संविमर्श में उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री राजेश अग्रवाल ने बतौर मुख्य अतिथि कही। उन्होंने इस एक दिवसीय सारगर्भित समारोह में शोधकर्ताओं द्वारा ईरान में रखी हुई महाराजा विक्रमादित्य की मूर्ति को भारत लाये जाने की बात पर सहमति जताते हुए कहा कि इसमें जो भी मदद होगी वह करने को तैयार हैं। उन्होंने कहा कि मुझे विश्वास है कि मूर्ति लाने में सफलता मिलेगी। उन्होंने कहा कि आप सबकी इस मूर्ति को लाने की चिंता जनता में भी जाये यह जरूरी है, इस कार्य में मीडिया की बहुत मदद की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि सभी प्रयास तभी रंग लाते हैं जब उसका व्यापक प्रचार-प्रसार होता है, यह बात प्रयागराज में कुंभ की सफलता से समझा जा सकता है। इस बार के कुंभ में करीब 22 करोड़ से ज्यादा श्रद्धालु पहुंचे, यह संख्या हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा है।
आपको बता दें नववर्ष चेतना समिति अपने अभिनव कार्यक्रमों के माध्यम से विक्रमी संवत के प्रणेता राजा विक्रमादित्य के बारे में जानकारी देने के कार्य में वर्षों से लगी हुई है। इसी क्रम में समिति द्वारा शनिवार को आयोजित समारोह में राजा विक्रमादित्य पर शोध करने वाले अनेक शोधकर्ताओं ने भाग लिया तथा अपने-अपने शोध के बारे में बताया। अपने सम्बोधनों के जरिये भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को बताते हुए जनमानस में राष्ट्रीय स्वाभिमान की भावना जागृत करने की कोशिश की। तीन सत्रों में हुए इस समारोह का समापन अंतिम सत्र के मुख्य अतिथि उत्तर प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित के उद्बोधन के साथ हुआ।
वाराणसी स्थित सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्व विद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो अभिराज राजेन्द्र मिश्र ने कहा कि भारत की सीमायें रोम तक फैली हुई थीं। उन्होंने कहा कि ईरान में राजा विक्रमादित्य की मूर्ति रखी हुई है, हमारी गौरवशाली संस्कृति की प्रतीक इस मूर्ति को भारत में मंगाया जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने बहुत ही चालाकी से मूल राजा विक्रमादित्य की पहचान को गायब करने के उनकी जगह चंद्रगुप्त द्वितीय के कार्यकाल को राजा विक्रमादित्य का कार्यकाल बता कर लोगों को गुमराह किया है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने जानबूझकर एक साजिश के तहत संवत के प्रवर्तकों को प्राथमिकता नहीं दी। न विक्रम संवत को और न ही कलि संवत जबकि ये र्इसवी से ज्यादा पुराने हैं। उन्होंने कहा कि जबकि आश्चर्यजनक यह है कि कलि संवत के रचनाकारों के ग्रंथ को मानते हुए ईसवी के साथ गणना करते हैं यानी कहीं न कहीं कलि संवत को आधिकारिक मानते हैं। डॉ अभिराज ने कहा कि सम्राट विक्रमादित्य के बारे में पता चलता है कि वे दिग्विजय थे, जैन साहित्य में भी उनका जिक्र मिलता है। यह विडम्बना है कि पाठयक्रम से सम्राट विक्रमादित्य को गायब कर दिया गया है। हमें इस दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है।
लखनऊ विश्व विद्यालय के प्रति कुलपति डॉ राजकुमार ने अपने वक्तव्य में कहा कि हमारी मानसिकता ऐसी हो गयी है कि जिन बातों की प्रामाणिकता हम लोग कहते हैं वह समझ में नहीं आती लेकिन वही बात अगर कोई विदेशी कह दें तो हम सब मान लेते हैं। उन्होंने कहा कि धन नष्ट हो जाये तो कोई बात नहीं लेकिन चरित्र नष्ट हो जाये तो समझो सब कुछ नष्ट हो गया।
शोधकर्ता डॉ गुंजन अग्रवाल ने अपने वक्तव्य में प्राचीन अरब विशेषकर मक्का पर प्रकाशित शोध के बारे मे बताया कि प्राचीन अरब में हिन्दू संस्कृति थी। उन्होंने महाराज विक्रमादित्य का यशोगान करने वाली कवि ज़र्हम बिन्तोई की कविता जिक्र करते हुए बताया कि इस कविता में बिन्तोई ने सम्राट विक्रमादित्य के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है। इसके अलावा डॉ अरुण कुमार उपाध्याय, डॉ रवि शंकर ने भी सम्राट विक्रमादित्य पर अपने शोधों के बारे में बताया।
नववर्ष जनचेतना समिति के अध्यक्ष डॉ गिरीश गुप्त ने बताया कि हम लोगों की योजना है कि समिति की तरफ से लखनऊ में सम्राट विक्रमादित्य की मूर्ति स्थापित की जाये। उन्होंने बताया कि ईरान से मूर्ति लाने के लिए समिति की तरफ से पत्र भी विश्वविद्यालय को लिखा गया है। समिति के सचिव डॉ सुनील कुमार ने बताया कि भारत में भले ही पाश्चात्य कालगणना ने घुसपैठ कर ली हो परन्तु समाज की विविध गतिविधियों जैसे पर्व, त्यौहार, विवाह, धार्मिक अनुष्ठान आदि के लिए हम आज भी विश्व की प्राचीनतम कालगणना प्रणाली का ही उपयोग करते हैं। इस मौके पर डॉ राघवेन्द्र प्रताप सिंह, डॉ अमित कुमार कुशवाहा, डॉ शिखा चौहान, डॉ संगीता शुक्ला, प्रो संतोष तिवारी सहित अनेक प्राध्यापक, सहायक प्राध्यापक व अन्य लोग मौजूद थे।