-इंटरनेशनल फोरम फॉर प्रमोटिंग होम्योपैथी के वेबिनार में ‘क्रॉनिक किडनी रोग में होम्योपैथी की भूमिका’ विषय पर व्याख्यान
सेहत टाइम्स
लखनऊ। अगर कोई व्यक्ति अक्सर ऐंटीबायोटेक या दर्द निवारक दवाओं का सेवन कर रहा है, या फिर डायबिटीज या हाई ब्लड प्रेशर से पीड़ित है तो उसे किडनी की बीमारी होने का खतरा ज्यादा है, उसे तीन से चार माह के अंतर पर किडनी की जांच (केएफटी) करा लेना चाहिए जिससे किडनी की बीमारी को शुरुआत में ही डायग्नोस किया जा सके। ज्ञात हो किडनी के ख़राब होने के बाद न तो उसे ठीक करना संभव है, और न ही उसको आगे ख़राब होने से रोकना संभव है, उपचार की बात करें तो एलोपैथी में इसका उपचार डायलिसिस या किडनी ट्रांसप्लांट है, वहीं होम्योपैथी में दवाओं से डायलिसिस या किडनी ट्रांसप्लांट की नौबत आने को लम्बे समय तक रोका जाना संभव है। ज्ञात हो डायलिसिस या किडनी ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया काफी जटिल और खर्चीली है, ऐसे में प्रक्रिया को होम्योपैथी दवाओं से लम्बे समय तक टालना एक सर्वोत्तम कदम कहा जा सकता है।
यह जानकारी गौरांग क्लीनिक एंड सेंटर फॉर होम्योपैथिक रिसर्च (जीसीसीएचआर) के कंसल्टेंट डॉ गौरांग गुप्ता ने इंटरनेशनल फोरम फॉर प्रमोटिंग होम्योपैथी द्वारा 18 अप्रैल को आयोजित वेबिनार में ‘क्रॉनिक किडनी रोग में होम्योपैथी की भूमिका’ विषय पर व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए दी। उन्होंने अपने प्रेजेंटेशन में कहा कि आजकल माइग्रेन और जोड़ों में दर्द के मरीज बड़ी संख्या में हैं, इनमें अधिकतर मरीज अक्सर ही दर्द की दवाओं का सेवन करते रहते हैं, इन दवाओं से भी किडनी पर असर पड़ता है। वहीं छोटे-छोटे बच्चों में बार बार बुखार की दवा भी किडनी के लिए हानिकारक है। उन्होंने कहा कि टीबी की दवाएं भी किडनी पर असर डाल सकती हैं।
उन्होंने होम्योपैथी से जिन किडनी रोगियों को डायलिसिस या किडनी ट्रांसप्लांट से लम्बे समय तक दूर रखना संभव हुआ है उनमें अलग-अलग कारणों से किडनी की बीमारी वाले रोगियों के मॉडल केसेस प्रस्तुत किये। पेश किये गए केसेस में एक केस 52 वर्षीय हाइपरटेंसिव और डायबीटिक व्यक्ति का था, जो 15 जून 2022 को आया, उसे बार-बार सीरम क्रिएटिनिन बढ़ने की शिकायत हो रही थी उस समय इनके सीरम क्रिएटिनिन का लेवल 6. 68 था। डॉ गौरांग ने बताया कि पेशेंट को किडनी के साथ ही दूसरी बीमारियां भी थीं, उन्होंने बताया कि केस का गहन अधय्यन करने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचे कि इस मरीज की दवा तो शुरू की गयी, साथ ही उसको डायलिसिस कराने की भी सलाह दी, उन्होंने बताया ऐसा करना तुरंत के लिए बहुत जरूरी था क्योंकि जिस रफ़्तार से उसका सीरम क्रिएटिनिन बढ़ रहा था ऐसी स्थिति में तुरंत उसको नीचे लाने के लिए डायलिसिस करना जरूरी था उन्होंने बताया कि इस मरीज को डायलिसिस करने की सलाह देने के पीछे इसकी पर्सनल हिस्ट्री भी नजर में रखी गई क्योंकि मरीज एक बिजनेसमैन था और तंबाकू और अल्कोहल का लती था, मरीज के घर में इसी तरह का माहौल था उनके भाई को भी लिवर डिजीज थी। इस प्रकार 9 दिनों के अंदर उसकी पांच बार डायलिसिस की गई।
पांच डायलिसिस के बाद जब मरीज 22 जून को डायलिसिस कराने पहुंचा तो सीरम क्रिएटिनिन 3.64 था तो डॉक्टर ने उनकी डायलिसिस नहीं की और पांच दिन बाद 27 जून को पहुंचे तो डायलिसिस करने वाले डॉक्टर सीरम क्रिएटिनिन की रिपोर्ट देखकर चौंक गए क्योंकि सीरम क्रिएटिनिन का लेवल सीधे 1.8 पर आ गया था डॉक्टर ने क्रॉस चेक कराया तो भी सीरम क्रिएटिनिन का लेवल लगभग उतना ही था। डॉक्टर ने अगली बार बुलाया, जब मरीज 2 जुलाई को पहुंचे तो सीरम क्रिएटिनिन का लेवल 1.6 निकला। इसके बाद से मरीज ने नेफ्रोलॉजिस्ट के पास जाना बंद कर दिया और सिर्फ होम्योपैथिक दवा ले रहा है और अब भी उनका सीरम क्रिएटिनिन का लेवल 1.2 के आसपास बना हुआ है, तथा अभी तक उसे डायलिसिस कराने की जरूरत नहीं पड़ी है।
रिसर्च का प्रकाशन
जीसीसीएचआर में अब तक हुई रिसर्च बताती है कि होम्योपैथिक इलाज से पांच-पांच साल तक डायलिसिस/ट्रांसप्लांट से दूर रखने में सफलता मिली है, यहाँ तक कि एक मरीज को 15 वर्षों तक ट्रांसप्लांट की जरूरत नहीं पड़ी। डॉ गुप्ता ने बताया कि इस रिसर्च का प्रकाशन नेशनल जर्नल ऑफ होम्योपैथी में वर्ष 2015 वॉल्यूम 17, संख्या 6 के 189वें अंक में हो चुका है। डॉ गुप्ता ने एक महत्वपूर्ण उपलब्धि को इंगित करते हुए बताया कि ये सभी मरीज किडनी फेल्योर की पहली से लेकर पांचवीं (प्राइमरी से एडवांस) स्टेज तक के थे, इनमें कई मरीज अपनी वर्तमान स्टेज से कम वाली स्टेज में वापस भी आ गये।
रिसर्च के बारे में उन्होंने बताया कि इलाज से पूर्व मरीज के रोग की स्थिति का आकलन उसकी सीरम यूरिया, सीरम क्रिएटिनिन और ईजीएफआर की रिपोर्ट को आधार मानते हुए किया गया। इन मरीजों की किडनी का साइज देखने के लिए अल्ट्रासाउंड भी कराया गया। जिन 160 मरीजों पर शोध किया गया इनमें किसी भी रोगी की डायलिसिस नहीं हो रही थी। अगर आयु की बात करें तो इसमें 109 रोगी 31 वर्ष से 60 वर्ष की आयु के थे, जबकि 30 वर्ष की आयु तक के 24 तथा 61 वर्ष की आयु से ऊपर वाले 27 मरीज थे। इनमें 151 मरीजों का इलाज पांच साल से कम तथा 9 मरीजों का फॉलोअप पांच वर्ष से ज्यादा अधिकतम 15 वर्ष तक किया गया है।