ऑटिज्म का शिकार बच्चों को बिहैवियरल थैरेपी से दिया जा सकता है सपोर्ट
लखनऊ। ऑटिज्म एक प्रकार का न्यूरोलॉजिकल डिस्आर्डर है जो जेनेटिक होता है, चूंकि इसका पता बच्चे के व्यवहार से ही लगाया जा सकता है, इसलिए आमतौर पर दो-ढाई साल की उम्र में पहुंचकर ही इसे डायग्नोस किया जा सकता है। ऐसे बच्चों का दिमाग बहुत तेज होता है लेकिन उनमें सीखने की प्रवृत्ति, एकाग्रता जैसे गुणों का अभाव होता है इसलिए दिमाग तेज होने के बावजूद उनका सामान्य बच्चों की तरह व्यवहार नहीं होता है। जेनेटिक होने के कारण इसका कोर्इ इलाज भी नहीं खोजा जा सका है सिर्फ बिहैवियरल थैरेपी से ही इन बच्चों को वे व्यवहार सिखाये जाते हैं जो सामान्य बच्चा कुदरती रूप से सीखता है। कुछ बच्चों को थोड़ी दवा की जरूरत भी पड़ती है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है तो बिहैवियरल थैरेपी से उसमें ठहराव आता है जो कि उसे सपोर्ट देता है। दुनिया में करीब 80 मिलियन बच्चे ऑटिज्म का शिकार है, जबकि भारत की बात करें तो यहां 10 मिलियन से ज्यादा बच्चे ऑटिज्म से प्रभावित हैं।
यह जानकारी मंगलवार को वर्ल्ड ऑटिज्म डे पर एसोसिएशन ऑफ चाइल्ड ब्रेन रिसर्च द्वारा यहां एमबी क्लब में आयोजित समारोह में संजय गांधी पीजीआई की बाल रोग विशेषज्ञ डॉ पियाली भट्टाचार्य ने दी। इस समारोह में ऑटिज्म का बिहैवियरल थैरेपी से इलाज करने वाले देश के 55 विशेषज्ञों ने भाग लिया। आपको बता दें कि एसोसिएशन ऑफ चाइल्ड ब्रेन रिसर्च की स्थापना कैम्ब्रिज यूके के पीडियाट्रिक न्यूरोलॉजिस्ट डॉ राहुल भारत ने करीब साढ़े चार साल पूर्व की थी।
इस तरह करते रहते हैं व्यवहार
उन्होंने बताया कि ऑटिज्म सिंगल एंटिटी नहीं होता है यह स्प्रेक्ट्रम होता है जैसे कि सीखने में दिक्कत, अटैन्शन में कमी जैसी कई दिक्कतें एकसाथ होती है इसलिए इस बीमारी को ऑटिज्म स्प्रेक्ट्रम डिस्ऑर्डर कहा जाता है। इसमें एक डिस्ऑर्डर होता है अटैन्शन डैफिशिट हाईपरएक्टिविटी डिस्ऑर्डर (attention deficit hyperactivity disorder) ADHD। इस डिस्ऑर्डर में बच्चे शांत नहीं बैठते हैं, वे कोई न कोई ऐसी हरकत लगातार करते रहते हैं। जैसे घर में भी शैतानियां करते रहते हैं, कूदफांद मचाते रहते हैं, जैसे सोफे, बिस्तर, सीढ़ियों से लगातार कूदते रहेंगे, मना करो तो आपकी बात सुनेंगे ही नहीं, बस अपने मन की करते जाते हैं। इनमें एकाग्रता की कमी होती है, इन्हें कुछ समझाने की कोशिश करो तो ये आंख से आंख नहीं मिलाते हैं, चूंकि जब आंख से आंख नहीं मिलायेंगे तो कोई भी चीज सीखने में दिक्कत आयेगी, भाषा सिखाने में दिक्कत आती है।
उन्होंने बताया कि इन बच्चों में दिमाग की कमी नहीं होती है, यह गिफ्टेड बच्चे कहलाते हैं। इनका दिमाग सामान्य बच्चों से ज्यादा होता है लेकिन सीखने की प्रवृत्ति, एकाग्रता न होने से दिमाग का प्रयोग टोटल व्यक्तित्व में नहीं हो पाता है। इनका दिमाग जिस तरफ भी चल गया उसमें यह सामान्य बच्चों से ज्यादा निपुणता से कार्य कर लेते है। डॉ पियाली ने बताया कि ऐसे बच्चों को अगर सही समय पर सहारा मिल जाये तो यह बहुत कुछ अच्छा कर सकते हैं। इनका इलाज डेवलेपमेंटल पीडियाट्रीशियन द्वारा बिहैवियरल थैरेपी से किया जाता है। कुछ बच्चों को थोड़ी दवा देने की जरूरत भी पड़ती है।
छोटे बच्चों में ऑटिज्म की डायग्नोसिस करना चुनौतीपूर्ण
उन्होंने बताया कि सबसे चुनौतीपूर्ण बात यह है कि बच्चों में यह जल्दी से जल्दी से पता लगा लिया जाये कि ऑटिज्म है या नहीं। हालांकि बहुत छोटे बच्चे में ऑटिज्म की डायग्नोसिस करना आसान नहीं है। उन्होंने कहा कि बच्चे जब थोड़ा बड़े होते हैं, स्कूल जाने की उम्र में होते हैं, तब इनकी हरकतों से पता चलता है कि यह तो सामान्य नहीं हैं। उन्होंने कहा कि यह ध्यान देने योग्य बात है कि शैतान बच्चे में और ऑटिज्म के शिकार बच्चे में बहुत फर्क है, इसलिए गलती से भी अगर शैतान बच्चे को ऑटिज्म की श्रेणी में रख लिया तो यह उस बच्चे के साथ बहुत अन्याय होगा।
ऑटिज्म का पता लगाने के लिए देखा जाता है कि 18 गुण होते हैं, इनमें 9 अटैन्शन देखने के लिए और 9 हाईपर एक्टिविटी देखने के लिए, इनमें दोनों कैटेगरी में कम से कम 5-5 गुण अगर बच्चे में हैं तो उसे हम ADHD की कैटेगरी में मानकर ऑटिज्म का शिकार मान लेते हैं। उन्होंने बताया कि बच्चे से, माता-पिता से और स्कूल टीचर के लिए कुछ प्रश्न होते हैं जिससे यह पता लगाया जाता है कि बच्चा ऑटिज्म की कैटेगरी में है या नहीं। उन्होंने बताया कि एम्स दिल्ली की डॉ शैफाली गुलाटी ने एक ऐप डेवलेप किया है जिसकी मदद से प्रारम्भिक तौर से यह पता लगा लिया जाता है कि बच्चा ऑटिज्म का शिकार है या नहीं।
कमी है ऑटिज्म का इलाज करने वाले डॉक्टरों की
उन्होंने बताया कि प्राथमिक तौर पर जब ऑटिज्म होने का पता लग जाये तो बच्चों के ऐसे डॉक्टर, जो बिहैवियरल थैरेपी करते हों, उनको दिखाना चाहिये, ऐसे चिकित्सक भारत में कम हैं। इसलिए ऐसे चिकित्सकों की संख्या बढ़ाने की तरफ भी ध्यान देना होगा। बिहैवियरल थैरेपी से होता यह है कि बच्चे पूरी तरह सामान्य तो नहीं हो पाते हैं लेकिन इतना हो जाते हैं कि उन्हें अपना जीवन जीने में बाधा नहीं आती है। यही नहीं उनकी कुछ बच्चों की तेज बुद्धि का सदुपयोग क्षेत्र विशेष में किया जा सकता है। ये इतने तेज होते हैं कि सामान्य बच्चे से भी कई गुना ज्यादा अच्छा काम उस क्षेत्र विशेष में कर लेते हैं।