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होम्‍योपैथी से ‘प्‍लेसबो’ का टैग हटाने के लिए ठुकरा दिया मेडिकल ऑफीसर की नौकरी का ऑफर

अभी तक आपने जाना कि होम्‍योपैथी को ‘प्‍लेसबो’ कहा जाना डॉ गिरीश को इतना ज्‍यादा चुभा कि उन्‍होंने होम्‍योपैथिक दवाओं की वैज्ञानिकता सिद्ध करने के लिए शोध को अपना लक्ष्‍य बनाया और फि‍र किस प्रकार इसके लिए एनबीआरआई, सीडीआरआई में कड़े संघर्ष के बाद रिसर्च के लिए अपनी जगह बनायी, अब जानिये आगे…

डॉ गिरीश गुप्‍ता की पुस्‍तक एक्सपेरिमेंटल होम्योपैथीकी समीक्षा भाग-3   

                                                         गतांक से आगे…  

क्लिक करके पढ़ि‍ये -पुस्‍तक ‘एक्सपेरिमेंटल होम्योपैथी’ की समीक्षा भाग-1

क्लिक करके पढ़ि‍ये-पुस्‍तक ‘एक्सपेरिमेंटल होम्योपैथी’ की समीक्षा भाग-2

डॉ गिरीश गुप्‍ता
डॉ गिरीश गुप्‍ता की पुस्‍तक ‘एक्सपेरिमेंटल होम्योपैथी’

सीडीआरआई में सीनियर रिसर्च फेलो (एसआरएफ) के रूप में कार्य करते हुए अभी तीन माह बीते थे कि एक ऐसी स्थिति सामने आयी जिसने डॉ गिरीश गुप्‍ता को दो राहे पर लाकर खड़ा कर दिया। दरअसल होम्‍योपैथी निदेशालय से स्‍टेट डिस्‍पेंसरी में मेडिकल ऑफीसर के पद पर नियुक्ति का पत्र आया, डॉ गुप्‍ता लिखते हैं कि मेरे सामने दुविधा की स्थिति थी एक तरफ मेडिकल ऑफीसर की नौकरी तथा दूसरी ओर रिसर्च कार्य। वे लिखते हैं कि इसके बाद उन्‍होंने निर्णय लिया कि नौकरी को भूल जाना है और वे रिसर्च के कार्य में जुट गये।

डॉ गुप्‍ता लिखते हैं कि उन्‍होंने हरपीस जॉस्‍टर वायरस पर शोध कार्य शुरू किया तभी एक रोचक वाक्‍या घटा, हुआ यूं कि संस्‍थान के पैरासिटोलॉजी विभाग के एक शोधकर्ता साथी संजय जौहरी हरपीस से ग्रस्‍त हो गये थे। जब उन्‍होंने डॉ गिरीश गुप्‍ता के शोध कार्य के बारे में सुना तो उनसे दवा के लिए सम्‍पर्क किया। डॉ गिरीश ने उन्‍हें होम्‍योपैथिक दवा ranunculus bulbosus 30 की कुछ खुराकें दीं, उसके करीब 72 घंटे बाद से उनके घाव सूखना शुरू हो गये।

इस बारे में ‘सेहत टाइम्‍स’ ने संजय जौहरी से भी बात की, आपको बता दें कि संजय जौहरी इस समय एमिटी यूनिवर्सिटी के मास कॉम विभाग में अपनी सेवाएं दे रहे हैं, इससे पूर्व वे समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्‍ट ऑफ इंडिया (पीटीआई) में कार्यरत थे। संजय जौहरी बताते हैं कि मेरे साथ ही डॉ गिरीश गुप्‍ता सीडीआरआई में रिसर्च कर रहे थे, मैं डॉ गुप्‍ता के पास गया और उन्‍हें अपनी दिक्‍कत के बारे में बताया और दवा की मांग की, इसके बाद डॉ गुप्‍ता ने कल्‍चर जांच के लिए नमूना लिया साथ ही एक दवा दी, संजय बताते हैं कि दवा खाने के 36 घंटे में ही मुझे आराम आने लगा, घाव ठीक होने लगे, कल्‍चर की रिपोर्ट जब आयी तो उसमें वहीं कन्‍फर्म हुआ जो डॉ गुप्‍ता ने एक नजर में देखकर ही अनुमान लगा लिया था।  

डॉ गिरीश लिखते हैं कि इस सफल परिणाम का नतीजा यह हुआ कि डॉ एलएम सिंह, जिनके अधीन वे रिसर्च कर रहे थे, का विश्‍वास होम्‍योपैथी की ताकत पर गहरा हो गया। तभी एक हादसा हो गया, दुर्भाग्‍य से डॉ गुप्‍ता हरपीस वायरस के सम्‍पर्क में आ गये और उनके अंदर क्‍लीनिकल लक्षण उभरने लगे तो डॉ एलएम सिंह ने उनसे हरपीस पर रिसर्च बंद करके ऐसे एनिमल वायरस पर रिसर्च करने को कहा जो मानव को न संक्रमित करते हों, उन्होंने मुर्गों में होने वाली बीमारी के लिए चिकन एम्ब्रियो वायरस नामक एक नए स्ट्रेन पर शोध कार्य करने को कहा, यह वायरस मुर्गे की गंभीर रुग्णता और मृत्यु दर का कारण बनता है जिससे पोल्ट्री उद्योग को भारी नुकसान होता है।

डॉ गुप्‍ता बताते हैं कि हालाँकि, मेरा उद्देश्य कोई एंटीवायरल दवा खोजना नहीं था, बल्कि होम्योपैथी से ‘प्लेसबो’ के टैग को हटाने के लिए प्रायोगिक मॉडल में शक्तिशाली दवाओं की जैव-गतिविधि को साबित करना था। वे लिखते हैं कि फि‍र जैसे-जैसे प्रयोग होते गए, हमें सकारात्मक परिणाम मिलने लगे। डॉ. एल.एम. सिंह परिणाम से अत्यधिक संतुष्ट थे। वे उनके कार्य से इतना प्रसन्‍न हुए कि उन्होंने अधिक से अधिक प्रयोग करने के लिए खुली छूट देकर उनका समर्थन किया।

डॉ गुप्‍ता बताते हैं कि फि‍र जब प्रथम प्रगति रिपोर्ट सीसीआरएच को भेजी गयी तो वहां के सम्‍बन्धित अधिकारियों ने इसे काफी प्रोत्‍साहन दिया क्‍योंकि काउंसिल के तहत की जाने वाली यह एक अनोखी रिसर्च थी। वे लिखते हैं कि फि‍र तीन रिसर्च पेपर प्रकाशित हुए, इनमें दो भारतीय तथा एक इंग्‍लैंड के जर्नल में प्रकाशित हुआ। यही नहीं एक रिसर्च पेपर ‘वायरस कीमोथेरेपी थ्रू होम्‍योपैथिक ड्रग्‍स : ए न्‍यू अप्रोच’ को लियोन में में आयोजित लिगा मेडिकोरम होम्‍योपैथिका इंटरनेशनलिस में प्रस्‍तुत करने के लिए अनुमोदित किया गया।

10 जून, 1985 को लंदन के रॉयल कॉलेेज ऑफ फि‍जीशियंस में प्रस्‍तुत किये गये रिसर्च प्रोजेेेक्‍ट के बारे में ब्रिटिश होम्‍योपैथी रिसर्च की सेक्रेटरी डॉ अनीता ई डेवीस को बताते डॉ गिरीश गुप्‍ता फाइल फोटो

डॉ गिरीश के अभिनव कार्य से प्रभावित होकर ब्रिटिश होम्‍योपैथी रिसर्च ग्रुप ने उन्‍हें लंदन में रॉयल कॉलेज ऑफ फि‍जीशियंस में एक लेक्‍चर देने का प्रस्‍ताव रखा, डॉ गिरीश ने वहां यह लेक्‍चर 10 जून, 1985 को प्रस्‍तुत किया। यह शोध कार्य वहां की वार्षिक रिपोर्ट दि कम्‍युनिकेशंस में तथा ब्रिटिश होम्‍योपैथिक जर्नल के जुलाई 1985 के अंक में प्रकाशित हुआ, यह मुझ जैसे नौसिखिये के लिए अविश्‍वसनीय था। 

जारी…

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