-डॉ गिरीश गुप्ता की पुस्तक ‘एक्सपेरिमेंटल होम्योपैथी’ की समीक्षा भाग-2
गतांक से आगे…
होम्योपैथी पर लगाये गये प्लेसिबो के ठप्पे को हटाने के लिए पौधों पर होम्योपैथी का असर का सबूत दिखानेके लिए डॉ गिरीश गुप्ता ने जब लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआई)में सम्पर्क स्थापित किया तो उन्हें पौधों पर होम्योपैथी दवाओं के असर कोदेखने के लिए पूर्व में की गयी तीन स्क्रीनिंग के बारे में पता चला,जो लखनऊ विश्वविद्यालय के बॉटनीविभाग के प्रो एचएन वर्मा द्वारा 1969 में, सेंट्रल पोटेटो रिसर्च इंस्टीट्यूट शिमला के वायरस पैथोलॉजिस्ट डॉ एसएम पॉल खुराना द्वारा 1971 में और डॉ आबिदी द्वारा 1977 में की गयी थीं। डॉ गुप्ता लिखते हैं कि विश्व में पहली बार ऐसी रिसर्च होने के बाद भी इस रिसर्च वर्क को सम्बन्धित संस्थानों से आवश्यक प्रोत्साहन नहीं मिला, इसलिए ये आगे नहीं बढ़ सकीं।
पुस्तक समीक्षा का भाग-1 पढ़ने के लिए क्लिक करें–केजीएमसी के नामचीन प्रोफेसर का तंज चुभ गया था डॉ गिरीश गुप्ता को, और फिर उनके कदम बढ़े…
डॉ गुप्ता के बार-बारअनुरोध पर एनबीआरआई में रिसर्च वर्क के लिए अनुमति मिल गयी और निकोटियाना ग्लूटिनोसा Nicotiana glutinosa पौधे पर लगने वाले टोबेको मोसाइक वायरस tobacco mosaic virus पर होम्योपैथिक दवाओं का असर देखने के लिए मॉडल फाइनल किया गया। वे लिखते हैं कि रिसर्च के आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक परिणाम सामने आये। इसके बाद डॉ गुप्ता, जो मेडिकल के अंतिम वर्ष के छात्र थे,की यह रिसर्च 1980 में जर्नल ‘दि हैनिमैनियन ग्लीनिंग्स’ The Hahnemannian Gleanings में छपी। इस रिसर्च ने होम्योपैथी की दुनिया के दिग्गजों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवारकल्याण मंत्रालय के तत्कालीन एडवाइजर ऑफ होम्योपैथी डॉ दीवान हरिश्चंद ने भी जब यह रिसर्च देखी तो उन्होंने डॉ गुप्ता को एक रिसर्च प्रोफॉर्मा भेजकर इसे सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन होम्योपैथी (सीसीआरएच) में किसी रिसर्च इंस्टीट्यूटके माध्यम से भेजवाने को कहा। डॉ गुप्ता लिखते हैं कि यह मौका मिलना उनके लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था।
जब उड़ाया गया मजाक…
लेकिन डॉ गुप्ता की राह में अभी अनेक बाधाएं आनी बाकी थीं, डॉ गुप्ता ने जब लखनऊ स्थित सीसीआरएच के तहत कार्य करने वाली ड्रग प्रूविंग रिसर्च यूनिट के रिसर्च ऑफीसर डॉ रामानंद साह से इस विषय में मुलाकात की तो उन्होंने उनका मजाक उड़ाते हुए कहा कि क्या यह संभव है कि दवाएं सीधे रोगजनकों के खिलाफ कार्य कर सकती हैं। डॉ साह की नकारात्मक टिप्पणी ने डॉ गुप्ता को बहुत आहत किया। इसके बाद सीसीआरएच को रिसर्च project को भेजने के लिए उन्होंने एनबीआरआई के तत्कालीन निदेशक डॉ टीएन खोशू से अपनी रिसर्च में प्रायोगिक कार्य करने वाले वैज्ञानिकों के साथ मुलाकात की लेकिन निदेशक ने मदद करने से इनकार कर दिया। निराश डॉ गिरीश गुप्ता ने यह बात अपने गुरु डॉ सीपी गोयल को बतायी, ऐसे में डॉ गोयल ने उनकी पूरी मदद करते हुए सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीडीआरआई) में कार्य करने वाले अपने एक रिश्तेदार से मिलवाया, जिन्होंने वहीं पर वायरोलॉजी डिवीजन के साइंटिस्ट इंचार्ज डॉ एलएम सिंह से मिलवाया। डॉ एलएम सिंह रिसर्च के बारे में जानकर डॉ गुप्ता का रिसर्च प्रोजेक्ट सीसीआरएच को भेजवाने के लिए राजी हो गये और इस प्रोजेक्ट का नाम रखा गया ‘एंटीवायरल स्क्रीनिंग ऑफ होम्योपैथिक ड्रग्स अगेन्स्ट ह्यूमैन एंड एनिमल वायरेसेस’। हालांकि यहां भी एक बार बाधा आयी जब सीडीआरआई के तत्कालीन निदेशक डॉ नित्यानंद इस रिसर्च प्रोजेक्ट को भेजने में रुचि नहीं दिखा रहे थे, जिस वजह से अपनी मंजूरी नहीं दे रहे थे,लेकिन ईश्वर ने डॉ गुप्ता की मदद की, डॉएलएम सिंह द्वारा जोर लगाने पर डॉ नित्यानंद प्रोजेक्ट को भेजने के लिए राजी होगये।
डॉ गुप्ता लिखते हैं कि अब गेंद पूरी तरह से सीसीआरएच के पाले में थी, जहां बाधाएं कम नहीं थीं, लेकिन यहां पर डॉ दीवान हरिश्चंद की मदद काम आयी और उन्होंने जोर लगाकर प्रोजेक्ट को मंजूरी के लिए स्टैंडिंग फाइनेंस कमेटी और गवर्निंग बॉडी के पास आगे बढ़ाया, काफी मशक्कत के साल भर बाद अंतत: प्रोजेक्ट भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा मंजूर कर लिया गया। इधर डॉ एलएम सिंह ने अपने कुशल मार्गदर्शन में डॉ गुप्ता को वायरल संक्रमणों पर किये जा रहे अनुसंधान में प्रशिक्षण लेने की अनुमति दे दी। दूसरी ओर मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब उन्हें इंटर्नशिप भी करनी थी। डॉ गुप्ता लिखते हैं कि उन्होंने अपने कार्यदिवस को दो शिफ्ट में बांटते हुए पहले शिफ्ट में इंटर्नशिप तथा दूसरी शिफ्ट में रिसर्च प्रशिक्षण को समय दिया। हालांकि इस रिसर्च प्रशिक्षण में उन्हें एक भी पैसा नहीं मिलता था। डॉ गुप्ता लिखते हैं कि यह बहुत कठिन समय था। और फिर वह दिन आया जिसका बेसब्रीसे इंतजार था सीसीआरएच से अनुमोदित होकर विधिवत रूप से रिसर्च प्रोजेक्ट 29 सितम्बर, 1982 से सीडीआरआई में प्रारम्भ हो गया, प्रोजेक्ट में डॉ गुप्ता ने तीन साल के लिए 800 रुपये प्रतिमाह स्टाइपेंट पर सीनियर रिसर्च फेलो (एसआरएफ) के रूप में ज्वॉइन किया। इस बीच 2 अक्टूबर,1982 को डॉ गुप्ता ने एक बहुत छोटे से सेटअप के साथ पार्ट टाइम प्रैक्टिस शुरू कर दी। उनकी क्लीनिक का उद्घाटन कानपुर यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर व उत्तर प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन के तत्कालीन चेयरमैन प्रो राधा कृष्ण अग्रवाल ने किया था। प्रो अग्रवाल ने उन्हें बिना पैसे के पीछे भागे बीमार मानवता की सेवा करने के लिए प्रेरित किया।
पत्नी को कम्पाउंडर बनाया…कम्पाउंडर को पत्नी नहीं…
इसके बाद 13 दिसम्बर को डॉ गुप्ता विवाह बंधन में बंध गये। पत्नी सीमा गुप्ता ने पति के होम्योपैथी के प्रति समर्पण को देखते हुए उनके कदम से कदम मिलाकर चलने की ठानी और शादी के बाद ही पति की पार्ट टाइम क्लीनिक में कम्पाउंडर की भूमिका में आ गयीं। डॉ गुप्ता लिखते हैं कि मैं स्पष्ट कर दूं कि मैंने पत्नी को कम्पाउंडर बनाया…कम्पाउंडर को पत्नी नहीं…हालांकि कुछ समय बाद ही डॉ गुप्ता के छोटे भाई उमेश गुप्ता ने कम्पाउंडर का कार्य अपने हाथ में ले लिया। उमेश गुप्ता ने बाद में इंडियन आर्मी ज्वॉइन कर ली थी, वे हाल ही में मेजर जनरल के रूप में रिटायर हुए हैं। डॉ गुप्ता को सीडीआरआई में एसआरएफ के रूप में कार्य करते हुए अभी तीन माह ही हुए थे कि एक ऐसी स्थिति आ गयी जिसने उनको दो रास्तों के बीच लाकर खड़ा कर दिया। डॉ गुप्ता के पास होम्योपैथी डाइरेक्ट्रेट से नियुक्ति पत्र आया जिसमें उन्हें स्टेट डिस्पेंसरी में मेडिकल ऑफीसर के रूप चयनित होने की जानकारी दी गयी थी। अब डॉ गुप्ता के सामने दो रास्ते थे या तो रिसर्च वर्क छोड़ें या नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दें…उहापोह की स्थिति में डॉ गुप्ता विचार-विमर्श करने लगे…
जारी..
(आगे की कहानी अगले अंक में …जुड़े रहिये ‘सेहत टाइम्स’ से)
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