-लेख डॉ आभा सक्सेना की कलम से

अनुभव और किताबी ज्ञान के हिसाब से किसी भी व्यक्ति के जीवन में 13 वर्ष की आयु से 19 वर्ष की आयु तक की अवस्था अर्थात टीन एज़ तनाव, तूफान और चिंता की अवस्था कही जाती है। शारीरिक परिवर्तन, सामाजिक अपेक्षाओं और मानसिक चुनौतियों की अवस्था है यह। इस समय में यदि बालक को परिवार, विद्यालय और आस-पड़ोस में स्वस्थ वातावरण मिलता है, माता पिता और बच्चे के बीच में यदि निरंतर स्वस्थ संवाद व्यवस्था चलती है तथा बालक को उचित मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है तो किशोर, इस तूफानी आयु अवधि को सरलता से पार कर लेते हैं। बचपन के आरंभिक 5 वर्ष (जैसा कि फ्रायड द्वारा निर्धारित है) तथा बाद में टीन एज की यह अवधि, इन दोनों अवस्था में बालक की जैसी परवरिश होती है, बच्चा इन दिनों में जिस तरह के साथियों और घटनाओं से रूबरू होता है, वही काफी सीमा तक यह निश्चित करते हैं कि युवावस्था तथा प्रौढ़ावस्था में बालक का व्यवहार तथा सोच कैसी होगी।
हर्ष का विषय है कि विश्व के सबसे युवा देशों में हमारा देश अव्वल है। हमारे देश की कुल जनसंख्या का लगभग 50% से अधिक हिस्सा युवा आयु अवधि के बीच का है। युवा से तात्पर्य होता है जोश से भरा, शक्ति संपन्न, सहनशील और मेहनती व्यक्ति। यदि देश को युवा देश माना गया है तो आशा की जा सकती है कि भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा देश और समाज के लिए उपलब्धि और सम्मान अर्जित करेगा, पर क्या वास्तव में ऐसा है?
समाचार पत्रों की सुर्खियां और रेडियो, टीवी की न्यूज़ का हवाला अगर लें तो हर ओर चोरी, जालसाजी, साइबर क्राइम, बलात्कार, बुजुर्गों के प्रति संवेदनहीनता, प्रेम संबंधों में विवेकहीनता एवं उतावलापन, नशाखोरी, अपहरण और हत्या आदि की घटनाओं का बोलबाला नजर आता है।
आयोजनों और संबंधों में बढ़ता दिखावा, रिश्तों के खोखलेपन को उजागर करता है। Multiple love relations किशोरों और युवाओं की व्यग्रता, निर्णय न ले पाने की क्षमता और अविश्वसनीयता को इंगित करते हैं। तिरस्कार सहन कर पाने की किशोरों की अक्षमता उन्हें कभी व्यसनों की ओर ले जाती है तो कभी जुर्म की ओर। थोड़े समय में बड़ा वजूद बनाने का युवाओं का सपना उन्हें बड़े-बड़े माफिया और गैरकानूनी रैकेट चलाने वालों के चंगुल में ले लेता है। उज्ज्वल भविष्य को ढूंढ़ने की चाह में अंधेरी गलियों में खो जाने की दुर्घटना में जिस मानसिक अवस्था का बड़ा हाथ है वो है चिंता विकार। आज उम्र के बहुत आरंभिक पड़ाव पर ही बच्चा चिंता विकार का शिकार हो जाता है।
जमाने के चलन की अंधी नकल है या एकाकी परिवारों में माता-पिता दोनों के नौकरी पेशा होने की मजबूरी, कि डेढ़-दो साल की छोटी सी उम्र में बच्चे को स्कूल जाना होता है। समय से उठने की चिंता, टॉयलेट हैबिट्स को सीखने की चिंता, माँ की ममतामययी आंचल के छूटने की चिंता, विद्यालय की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की चिंता, विद्यालय में नकारात्मक मूल्यांकन होने पर माता-पिता के दुख और क्रोध को सहने की चिंता।
3 + 10 + 2 साल का विद्यालय जीवन समाप्त होने पर कॉलेज के चयन की चिंता, संकाय और विषय चुनने की चिंता ताकि जल्दी से ज्यादा वेतन वाली नौकरियों की योग्यता अर्जित की जा सके, कॉलेज में रहते हुए पीयर प्रेशर की चिंता। पढ़-लिख कर नौकरी मिल जाए तो प्रमोशंस की चिंता, स्टेटस मेंटेन करने के लिए और सपनों को पूरा करने के लिए लोन लेने की चिंता और फिर लोन चुकाने की चिंता।
सर्वगुण संपन्न जीवनसाथी पाने की चिंता, फिर योग्य संतान को पैदा करने की चिंता और फिर इस संतान को सारी चिंताएं हैंड ओवर कर देने की चिंता, यही तो चक्र है न आजकल हमारे और आपके जीवन का।
चिंता विकार के ग्राफ की बढ़ती ऊंचाई में हमारी पेरेंटिग प्रैक्टिसेज़ का तो कोई हाथ नहीं? बच्चों और परिवार जनों के बीच बढ़ती संवादहीनता तो कहीं चिंता विकार के ग्राफ की ऊंचाई नहीं बढ़ा रही? अपरिभाषित श्रेष्ठता को हासिल करने का सामाजिक दबाव तो कहीं जिम्मेदार नहीं है इस ग्राफ की ऊंचाई का? सुंदरतम को पाने की चाह में साधारण सुंदरता को नजरअंदाज करते जाना तो नहीं है कारण कहीं इस निरंतर ऊंचे होते जा रहे ग्राफ का?
दुर्भाग्य से हर प्रश्न का उत्तर हां, बस हाँ है। फिर उपाय क्या है? उपाय है-अभिभावक, शिक्षक और समाज के जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपने-अपने उत्तरदायित्व को समझना, उसे स्वीकार करना। प्रशंसा और सम्मान की आशा न रखकर उपयोगी पहल करनी है हम सबको। एक दूसरे की थोड़ी सी परवाह, परस्पर विश्वास, स्नेह, स्वीकृति और विचारों का लचीलापन, इस सबका एक ऊंचा सा ग्राफ बनाकर, चिंता विकार के ग्राफ को छोटा किया जा सकता है। आइये कोशिश करें…अभी देर नहीं हुई है…
(लेखिका कानपुर के महिला महाविद्यालय में मनोविज्ञान की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)

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