कानून बनने तक तय किये गए दिशा निर्देश का पालन करना भी जरूरी

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले के तहत गंभीर बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति को इच्छा मृत्यु दिए जाने पर सहमति प्रदान कर दी है, लेकिन इसके लिए क़ानून बनने तक एक गाइडलाइन भी तय की है. इस दिशानिर्देश के तहत ही इच्छामृत्यु की स्वीकृति दी जा सकती है.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि असाध्य बीमारी की अवस्था में स्वेच्छा से मृत्यु वरण के लिए पहले से वसीयत लिखने की अनुमति है. संविधान पीठ ने गैर सरकारी संगठन कॉमन कॉज की जनहित याचिका पर यह फैसला सुनाया.
संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति ए के सीकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति अशोक भूषण शामिल हैं. इन सभी न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश के फैसले में लिखे दिशानिर्देशों से सहमति व्यक्त की है. संविधान पीठ ने अपने दिशा निर्देशों में यह भी स्पष्ट किया है कि इस वसीयत का निष्पादन कौन करेगा और किस तरह से मेडिकल बोर्ड स्वेच्छा से मृत्यु वरण के लिए स्वीकृति प्रदान करेगा.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लाइलाज बीमारी से ग्रस्त मरीज के मामले में उसके निकटतम मित्र और रिश्तेदार पहले से ही निर्देश दे सकते हैं और इसका निष्पादन कर सकते हैं. इसके बाद मेडिकल बोर्ड इस पर विचार करेगा. प्रधान न्यायाधीश ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि इस प्रकरण में चार और निर्णय हैं, लेकिन सभी न्यायाधीशों में सर्वसम्मति थी कि चूंकि एक मरीज को लगातार पीड़ादायक अवस्था में रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती, जबकि वह जीवित नहीं रहना चाहता, इसलिए असाध्य बीमारी से ग्रस्त ऐसे मरीज की लिखित वसीयत को अनुमति दी जानी चाहिए.
ज्ञात हो शीर्ष अदालत ने 2011 में मुंबई के एक सरकारी अस्पताल की नर्स अरुणा शानबाग के मामले में स्वेच्छा से मृत्यु वरण को मान्यता दी थी. न्यायालय ने इस निर्णय में ऐसे मरीज के जीवन रक्षक उपकरण हटाने की अनुमति दी थी जो सुविज्ञ फैसला करने की स्थिति में नहीं है. शीर्ष न्यायालय ने अपनी गाइडलाइन में यह भी कहा कि स्वस्थ व्यक्ति डीएम की निगरानी में लिविंग विल लिख सकता है. लिविंग विल न होने की स्थिति में पीड़ित के रिश्तेदार हाईकोर्ट जा सकते हैं, लेकिन हाईकोर्ट भी मेडिकल बोर्ड के आधार पर ही फैसला लेगा.
केन्द्र ने 15 जनवरी, 2016 को कहा था कि विधि आयोग की 241 वीं रिपोर्ट में कुछ सुरक्षा मानदंडों के साथ स्वेच्छा से मृत्यु वरण की अनुमति देने की सिफारिश की थी और इस संबंध में असाध्य बीमारी से ग्रस्त मरीज का उपचार (मरीजों का संरक्षण और मेडिकल प्रैक्टीशनर्स) विधेयक 2006 भी प्रस्तावित है.
आपको बता दें कि ‘लिविंग विल’ एक लिखित दस्तावेज होता है जिसमें कोई मरीज पहले से यह निर्देश देता है कि मरणासन्न स्थिति में पहुंचने या रजामंदी नहीं दे पाने की स्थिति में पहुंचने पर उसे किस तरह का इलाज दिया जाए. ‘पैसिव यूथेनेशिया’ (इच्छामृत्यु) वह स्थिति है जब किसी मरणासन्न व्यक्ति की मौत की तरफ बढ़ाने की मंशा से उसे इलाज देना बंद कर दिया जाता है. प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने पिछले साल 11 अक्तूबर को इस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था.
 
 

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