तम्बाकू से पूरी दुनिया में 70 लाख और भारत में करीब 12 लाख लोग प्रति वर्ष अकाल मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। सरकार ने अब तम्बाकू उत्पादों पर एक नयी चेतावनी ‘तम्बाकू सेवन यानी अकाल मृत्यु’ लिखना अनिवार्य किया है। प्रश्न यह उठता है कि तम्बाकू उत्पादों पर स्लोगन और फोटो के जरिये दी जा रही चेतावनियों के बावजूद नशे को हतोत्साहित करने के कारगर परिणाम आखिर क्यों नहीं मिल रहे हैं। यह सवाल जब क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता से किया गया तो उन्होंने बताया कि क्या है इसकी वजह, और लोगों पर असर हो, इसके लिए क्या किया जा सकता है…
तम्बाकू खाने या सिगरेट पीने से शरीर को नुकसान होता है, इस बात का डर पैदा करने के लिए लम्बे समय से इनके उत्पादों पर वैधानिक चेतावनी लिखे जाने की मुहीम चल रही है, इसके लिए नियम-कानून भी बने हैं। शुरुआत से देखें तो पहले लिखा होता था कि ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है’ जो बाद में ‘सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’, फिर कैंसर का चित्र, कैंसरग्रस्त मुंह का चित्र और अब बीती 21 जुलाई को नियमों में संशोधन करते हुए नयी गाइडलाइन के अनुसार इस उत्पादों पर ‘तम्बाकू सेवन यानी अकाल मृत्यु’ लिखना अनिवार्य कर दिया गया है।
आखिर क्या वजह है कि चेतावनी की भाषा बदलने, कैंसरग्रस्त मुंह का चित्र छापने जैसे कदम उठाये जाने के बावजूद इसका सेवन करने वालों के मन-मस्तिष्क में तम्बाकू के प्रति डर अपेक्षानुसार पैदा नहीं हो पा रहा है। इसी मुद्दे पर ‘सेहत टाइम्स’ ने अलीगंज स्थित सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ ‘फेदर्स‘ की क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता, जिन्होंने नशा उन्मूलन पर भी कार्य किया है, से बात की। उनसे जानना चाहा कि आखिर ऐसा कौन सा मनोविज्ञान है जो गंभीर रोगों और मौत के डर पर भारी पड़ रहा है।
आकर्षक विज्ञापन
इस बारे में सावनी ने बताया कि नशे की लत छुड़ाने के लिए सिर्फ वैधानिक चेतावनी और चित्र से संदेश देना काफी नहीं है, हमारे आसपास का वातावरण कैसा है, इसका भी बहुत असर पड़ता है। तम्बाकू उत्पादों का विज्ञापन, दुकानों, मॉल में एलईडी लाइट्स के बीच उनका डिस्प्ले भी इन उत्पादों के प्रति आकर्षण बढ़ाता है। सड़क पर गुमटियां भले ही कितनी छोटी या टूटी-फूटी हों लेकिन उसमें रखी सिगरेट बड़े ही फैन्सी ढंग से डिस्प्ले की जाती हैं। वे कहती हैं कि वैधानिक चेतावनियों, कैंसर जैसे रोग के भयावह चित्रों आदि के माध्यम से नशे के लती जिन व्यक्तियों के अंदर हम डर पैदा करना चाहते हैं, उनके शरीर की केमिस्ट्री पर भी हमें ध्यान देना होगा, इसके साथ ही उनकी हिस्ट्री भी देखनी जरूरी है। हिस्ट्री जो एक दिन में नहीं बनी है, इसके लिए हमें उनके बचपन, किशोरावस्था में जाना होगा।
क्या सोचते हैं बच्चे
सावनी कहती हैं कि सोचिये जब एक बच्चा अपने घर में पिता या दूसरे लोगों को पैदा होने के बाद सालों-साल से सिगरेट पीते हुए, तम्बाकू खाते हुए देखता है, तो वह सोचता है कि अगर तम्बाकू या सिगरेट इतनी ही हानिकारक है तो हमारे घर के बड़े लोग वर्षों से इसका सेवन क्यों कर रहे हैं… इनको तो कुछ नहीं हुआ… ये तो अभी तक जीवित हैं…आदि-आदि। सावनी कहती हैं कि कई बार तो ये उत्पाद घरवाले बच्चों से ही मंगाते हैं। यही नहीं घर में, छत पर, बाथरूम में भी अगर आप सिगरेट पी रहे हैं तो कहीं न कहीं पैसिव स्मोकिंग का शिकार तो बच्चे बन ही रहे हैं।
चलो टेस्ट करते हैं…
जब ये ही बच्चे थोड़ा बड़े होते हैं और घर के बाहर निकलते हैं, उन पर कोई प्रतिबंध नहीं रहता है तो वह दोस्तों के साथ तम्बाकू, सिगरेट पीते हैं या ये चीजें नहीं मिलीं तो हुक्का, हुक्के के कई दूसरे प्लेवर जैसी चीजें उन्हें उपलब्ध हो जाती हैं, और फिर शुरुआत होती है उसका जायका लेने या उसे टेस्ट करने की। उनकी सोच यह होती है कि अभी इसे ले लेते हैं जब लत पड़ने लगेगी तो छोड़ देंगे लेकिन ऐसा होता नहीं है क्योंकि धीरे-धीरे यही आदत बन जाती है, और फिर एडल्ट होने की एज पर आते-आते यह लत का रूप ले लेती है। यानी उनका माइन्ड इसका आदी हो जाता है, और इसके बाद फिर वे इसे चाहकर भी नहीं छोड़ पाते हैं क्योंकि यह उनके शरीर की न्यूरो बायोलॉजी की आवश्यकता बन जाती है।
दिमाग को फौरी सुकून
यह आवश्यकता कैसे बन जाती है इस बारे में सावनी बताती हैं कि जैसे ही व्यक्ति किसी से लड़ाई, कहासुनी होने पर तनाव में आने पर सिगरेट पीता है, तो उसके ब्रेन में रिसेप्टर रिलीज होते हैं, जिन्हें निकोटीन एब्जॉर्शन रिसेप्टर्स कहते हैं, जिसे वह ऑब्जर्व कर लेता है, तम्बाकू निकोटिन रिलीज करता है। व्यक्ति जब ऑब्जर्व कर लेता है तो न्यूरो ट्रांसमीटर्स जैसे कि गाबा, डोपामिन शरीर से रिलीज होते हैं, ये न्यूरो ट्रांसमीटस गुस्से, तनाव की स्थिति में शरीर को हेल्प करते हैं और अचानक व्यक्ति आराम महसूस करता है। उस समय के लिए व्यक्ति को एक खुशी का अहसास होता है, लेकिन थोड़े समय की खुशी धीरे-धीरे आदत में बदल जाती है, और फिर व्यक्ति उसका लती बन जाता है।
सावनी बताती हैं कि मैं माता-पिता से भी यह कहना चाहूंगी कि बहुत बार बच्चे खुशी या मजा लेने के लिए नशा करते हैं, तो ऐसे में अपने बच्चों को ऐसे खेल या किसी अन्य एक्टिविटी में व्यस्त रखें जो उनके अंदर खुशी पैदा करे जिससे बच्चे नशे से मिलने वाले आनन्द की ओर न भागें।
सावनी कहती हैं कि लती होने के बाद जब व्यक्ति नशा छोड़ना भी चाहता है तो शरीर के अंदर जब नशे की फीलिंग आती है तो वह उस व्यक्ति पर इसकदर हावी होती हैं कि उस समय इस तरह की वैधानिक चेतावनियों को व्यक्ति नजरअंदाज कर देता है, क्योंकि ऐसी चेतावनियां वह लगातार देखता आता है तो इसका आदी हो चुका होता है।
बार के लिए एज बार तो तम्बाकू के लिए क्यों नहीं
इसके समाधान की दिशा में सुझाव देते हुए सावनी बताती हैं कि नशे की वस्तुओं की उपलब्धता बच्चों से दूर होनी चाहिये जैसे कि बार में जाने के लिए एज का सर्टीफिकेट दिखाना अनिवार्य है, लेकिन सिगरेट या पान मसाला छोटी-छोटी दुकानों, यहां तक कि चौराहों, सड़कों पर हाथों में लेकर खड़े होकर बेचने वाले लोगों के पास भी उपलब्ध है, जो बच्चों तक को आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।
शौक कब लत बन जाती है पता ही नहीं चलता
उन्होंने बताया कि मैंने जो नशा उन्मूलन पर कार्य किया है उसमें मैं इस नतीजे पर पहुंची हूं कि शुरुआत में शौकिया रूप से किया गया नशा बाद में लत बन जाता है, उस समय वे लोग इसे छोड़ने की भी सोचते हैं और उसी समय वे उन वैधानिक चेतावनियों को भी गहराई से लेते हैं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और वे चाहकर भी नहीं छोड़ पाते। इसीलिए सर्वाधिक आदर्श स्थिति यह है कि नशा उन्मूलन की शुरुआत परिवार, घर में ही बच्चों, किशोरों को नशे के माहौल से दूर रखने से की जानी चाहिये। जहां तक बड़े जो इसके लती हो चुके हैं, की बात है तो इसके लिए नशा छोड़ने के प्रति उनकी इच्छाशक्ति बहुत तेज होनी चाहिये इसके साथ ही उन्हें किसी मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक अथवा नशा उन्मूलन केंद्र से सम्पर्क कर नशा छोड़ने में सहायक इलाज लेना चाहिये। उन्होंने कहा कि हम लोग मोटिवेशन इन्हेंसमेंट थेरेपी कहते हैं जिसमें मोटिवेशन बढ़ाया जाता है। क्योंकि जब व्यक्ति नशा छोड़ना चाहता है तो व्यक्ति के आसपास का वातावरण, जो उसे नशा करने के प्रति प्रेरित कर रहा है, अगर उस पर हावी होना बंद हो जाये तो वह नशा छोड़ देगा, यह चीज अंदर से आती है और यह इच्छाशक्ति की मजबूती पर निर्भर करती है, इसी इच्छा शक्ति को मोटिवेशन बढ़ा कर मजबूत किया जाता है।