-विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस-जागरूकता सप्ताह (एपीसोड 2)
-क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता से विशेष वार्ता
सेहत टाइम्स
लखनऊ। मोबाइल पर मौजूद सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पिछले कुछ समय से छोटे वीडियो (रील्स आदि) देखने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ गयी है, हर उम्र के लोगों को स्क्रॉलिंग करते देखा जा सकता है, सेकंड्स में बनने वाले वीडियो देखने वालों की उंगलिया कब टच स्क्रीन पर सेकंड्स से मिनट और फिर मिनट से घंटों तक चलती रहती हैं, पता ही नहीं चलता है। जाहिर है जरूरत से ज्यादा स्क्रीन टाइम आंखों से लेकर पूरे शरीर पर कहीं न कहीं नुकसान पहुंचा रहा है।
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के जागरूकता सप्ताह में इस विषय पर ‘सेहत टाइम्स’ ने कपूरथला, अलीगंज स्थित फेदर्स-सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ की फाउंडर, क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट सावनी गुप्ता से बात की। उन्होंने बताया कि एक अध्ययन से पता चलता है कि छात्र औसतन प्रतिदिन डेढ़ से 2 घंटे में लगभग 360-480 रील देखते हैं। लघु वीडियो के कारण 60 सेकंड की रील या 15 सेकंड की क्लिप देखने में 40-60% छात्र प्रतिदिन स्क्रीन टाइम बर्बाद करते हैं, जिसके कारण 65% युवा अपराधबोध और उदासी से ग्रस्त होते हैं।
सावनी ने बताया कि दरअसल सोशल मीडिया एप्लिकेशन वे प्लेटफ़ॉर्म हैं जो उपयोगकर्ताओं की रुचियों के आधार पर सामग्री को निजीकृत करने के लिए एल्गोरिदम का उपयोग करते हैं। यह उन्हें वीडियो उपभोग के कभी न ख़त्म होने वाले चक्र में फंसा देता है।
सावनी ने बताया कि प्रत्येक वीडियो मस्तिष्क में डोपामाइन छोड़ता है जिससे नशीली दवाओं के समान नशे की प्रवृत्ति पैदा होती है, जिससे एक प्रकार का “न्यूरोलॉजिकल हाई” बनता है। यह लत युवाओं को वास्तविक दुनिया की समस्याओं से बचने में मदद करती है, तत्काल संतुष्टि पाने और गहरे जुड़ाव से बचने के चक्र को कायम रखती है।
उन्होंने बताया कि लगातार स्क्रॉल करने के कारण अधिकांश बच्चे यह याद नहीं रख पाते कि उन्होंने आखिरी बार क्या देखा था, जिससे उनकी अल्पकालिक स्मृति पर असर पड़ता है। तेजी से बदलती सामग्री के लगातार संपर्क में रहने से मस्तिष्क की जानकारी को प्रभावी ढंग से एनकोड करने और बनाए रखने की क्षमता में बाधा आती है। बच्चे परिवार और दोस्तों के साथ कम समय बिता रहे हैं, उन्होंने शारीरिक गतिविधियों को छोड़ दिया है, जिससे एकाग्रता में कमी आ रही है, और स्थिति यह है कि यह 12 सेकंड से घटकर 8 सेकंड रह गया है।
सावनी बताती हैं कि खराब नींद और स्मृति संबंधी समस्याएं बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ दैनिक जीवन को भी प्रभावित कर रही हैं। इसके अलावा, मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी छात्रों की नींद की गुणवत्ता के लिए हानिकारक साबित हो रही है, क्योंकि अधिक एक्सपोजर, विशेष रूप से अंधेरे में, मेलाटोनिन (एक हार्मोन जो नींद को नियंत्रित करता है) के उत्पादन को दबा देता है, इसलिए जो छात्र रात में वीडियो देखते हैं, उनकी नींद की कमी, नींद से जागने के चक्र में व्यवधान और साथ ही संज्ञानात्मक कार्यप्रणाली में कमी की अधिक शिकायत सामने आ रही हैं।